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________________ जैनधर्म-मीमांसा mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm निमन्त्रण दिया और भिक्षामें अच्छे अच्छे भोज्य पदार्थोका जरा-जरासा अंतिम कण भिक्षामें दिया । जब इनने पूछा तो उसने कहा कि आपके सिद्धान्तके अनुसार तो अंतिम अंशमें पूर्ण वस्तु रहती है इस लिये लड्डूका अंतिम कण ही पूरा लड्डू कहलाया । बस तिष्यगुप्तको अपनी भूल समझमें आ गई और वे अपने गुरुके पास लौट गये । __ अव्यक्त दृष्टि-वीर निर्वाणके २१४ वर्ष बाद श्वेतविका नगरीमें आर्याषाढ़भूति नामक आचार्यका रात्रिमें देहान्त हो गया । जैन शास्त्रोंमें लिखा है कि वे सौधर्म स्वर्गके नलिनीगुल्म विमानमें पैदा हुए परन्तु वे अपनी पूर्व मृतदेहमें प्रविष्ट होकर आचार्य की तरह बात करने लगे और थोड़ी देर बाद शरीर छोड़ते समय कह गये कि मैं तो आचार्य नहीं हूँ किन्तु देव हुआ है। इससे उनके कुछ शिष्य अव्यक्तवादी हो गये । कोई साधु साधु है या देव, यह नहीं जाना जा सकता इसलिये किसीको साधु समझकर वन्दना न करना चाहिये । इसलिये उन्होंने पारस्परिक शिष्टाचार ही छोड़ दिया । अंतमें वे संघबाह्य किये गये । वे राजगृह पहुँचे वहाँके राजा बलभद्रने उनको समझानेके लिये एक तरीका निकलवाया । उसने सेवकोंको आज्ञा दी कि उनको पकड़कर मार डाला जाय । उन मुनियोंने राजासे कहा कि “ तुम एक जैन श्रावक हो और जैन मुनियोंके साथ ऐसा व्यवहार करते हो"। राजाने कहा-आप लोग तो अव्यक्तवादी हैं इसलिये न तो आप यह जान सकते हैं कि मैं श्रावक हूँ और न मैं यह जानता हूँ कि आप लोग साधु हैं । इसपर उन मुनियोंने अव्यक्तवाद छोड़ दिया। इस घटनाका प्रारम्भिक अंश कल्पित है । आचार्यका अमुक
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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