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________________ १६६ जैनधर्ममीमांसा का सूर्य तो उसकी एक किरणके बराबर है । सूर्यमें हज़ार किरणें मानी जाती हैं इसलिये वह हज़ार सूर्यके बराबर हुआ । इन सब अतिशयोक्तियोंका दूर करके सिर्फ इतना कहा जा सकता है कि किसी भक्त नरेशने एक चमकदार प्रभामण्डल म० महावीरके बैठने के आसनमें इस प्रकार लगवाया होगा जिससे वह उनके सिरके चारों तरफ दिखाई देता होगा, जैसा कि आजकल भी मन्दिरोंमें मूर्तियोंके पीछे लगाया जाता है । सिर में से जो स्वभावतः किरणें निकलती हैं उन्हें श्वेताम्बरोंने एक अतिशय माना और दिगम्बरोंने उसे नहीं माना क्योंकि वे किरणें आँखोंसे नहीं दीखतीं । देवकृत अतिशय देवकृतातिशयका अर्थ है भक्तोंके द्वारा किये गये अतिशय । इस विषय में भी दोनों सम्प्रदायोंमें मतभेद है । दिगम्बर मान्यता श्वेताम्बर मान्यता १ - सर्वार्धमागधी भाषा । १ - चौबीस चमर । २ - पारस्परिक मित्रता । २ - पादपीठसहित सिंहासन । ३ – सब ऋतुओंके फलफूल उत्पन्न हों । ३ - सब ऋतुएँ अनुकूल रहें । ४ - दर्पणसदृश भूमि । ४ - तीन छत्र । ५ - सब लोग प्रसन्न ( संतुष्ट ) हों । ६ - वायु अनुकूल बहे । ५ - रत्नमय धर्मध्वज | ६ – एक वायु हो । ७ - गन्धोदककी वृष्टि | ७ - सुगंधित जलवृष्टि । ८ - चरणोंके नीचे कमल रचना । ८- सुवर्ण कमल ऊपर चलें । योजनतक अनुकूल
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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