SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ देवकृत अतिशय ९-भूमि कण्टकरहित हो। ९-कंटक अधोमुख हो जाय। १०-अठारह तरहका धान्य पैदा हो।१०-मणि, सुवर्ण और चाँदीके तीन कोट हों। ११-दिशा और आकाश निर्मल हो। ११-चार मुखसे उपदेश देते हैं यों दिखलाई दें। १२-आगे आगे धर्मचक्र चले। १२-आकाशमें धर्मचक्र हो। १३-अष्ट मंगल द्रव्योंका साथ रहना ।१३-शरीरसे बारह गुणा ऊँचा अशोक वृक्ष। १४ - इन्द्रकी आज्ञासे सब देवोंको १४-सर्व वृक्ष झुककर प्रणाम निमन्त्रण दिया जाय। करें। १५-आकाश-दुंदुभि बजे। १६-मयूर आदि पक्षी प्रदक्षिणा करें। १७-पुष्प-वृष्टि। . १८-नखकेश नहीं बढ़ें। १९-कमसे कम एक करोड़ . देव पास रहें। दिगम्बर सम्प्रदायमें देवकृत अतिशयके अनेक पाठ x हैं। दूसरे. पाठमें १४ वाँ अतिशय नहीं है और ग्यारहवें अतिशयके दो अतिशय बना दिये गये हैं ( दिशाका निर्मल होना और आकाशका x उपर्युक्त पाठ दर्शनप्राभूतकी टीकासे लिया गया है । • आजकल पाठशालाओंमें यही पाठ पढ़ाया जाता है।
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy