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________________ सिद्धान्त ८७ समूह मात्र है । विज्ञानमे यूरेनियम एक धातु है उससे सदा तीन प्रकारकी किरणे निकलती रहती है। जब यूरेनियमका एक अणु, तीनों किरणोंको खो बैठता है तो वह एक रेडियमके अणुके रूपमे वदल जाता है। इसी तरह रेडियम अणु शीशा धातुमे परिवर्तित हो जाता है। यह परिवर्तन बतलाता है कि एलेक्ट्रोन और प्रोट्रोनके विभागों 'मैटर'का एक रूप दूसरे रूपमे परिवर्तित हो जाता है । इस रहो वदला और टूट फूटको पुद्गल' शब्द बतलाता है। छहो द्रव्योंमें एक पुद्गल, द्रव्य ही मूर्तिक है, शेष द्रव्य अमूर्तिक है। न्यायदर्शनकार, पृथिवी, जल, तेज और वायुको जुदा जुदा द्रव्य मानते है, क्योकि उनकी मान्यताके अनुसार पृथिवीमे रूप, रस, गन्ध और स्पर्श चारो, गुण पाये जाते है, जलमे गन्धके सिवा शेष तीन ही गुण पाये जाते है.. तेजमें गन्ध और रसके सिवा शेष दो ही गुण पाये जाते है और वायुमे केवल एक स्पर्श ही गुण पाया जाता है। अत चारोके परमाणु जुदेजुदेह । अर्थात् पृथिवीके परमाणु जुदे है, जलके परमाणु जुदे है, तेजके. परमाणु जुदे है और वायुके परमाणु जुदे है। अत. ये चारो द्रव्य जुदे. जुदे है । किन्तु जैन दर्शनका कहना है कि सब परमाणु एकजातीय" ही है और उन सभीमे चारों गुण पाये जाते है। किन्तु उनसे बने हुए द्रव्योमें जो किसी किसी गुणकी प्रतीति नहीं होती, उसका कारण उन' गुणोंका अभिव्यक्त न हो सकना ही है। जैसे, पृथिवीमे जलका सिंचन करनेसे गन्ध गुण व्यक्त होता है इसलिये उसे केवल पृथ्वीका ही गुण नही माना जा सकता । आँवला खाकर पानी पीनेसे पानीका स्वाद मीठा लगता है, किन्तु वह स्वाद केवल पानीका ही नहीं है, आँवलेका स्वाद भी उसमे सम्मिलित है। इसी प्रकार अन्यत्र भी जानना चाहिये। इसके सिवा जलसे मोती उत्पन्न होता है जो पार्थिव माना जाता है, जंगलमे बांसोकी रगड़से अग्नि उत्पन्न हो जाती है, जौके खाने, पेटमे वायु उत्पन्न होती है। इससे सिद्ध है कि पृथ्वी, जल, अग्नि और वायके परमाणुगोमें भेद नहीं है। जो कुछ भेद है, वह केवल परिणमनका भद है। अतः सभीमें स्पर्शादि चारो गुण मानने चाहिये। और
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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