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________________ जैनधर्म इसीलिये पृथ्वी आदि चार द्रव्य नहीं है किन्तु एक द्रव्य है। इसीलिये कहा है 'आदेसमत मुत्तो धादुचदुक्कस्स कारण जो दु।। सो णेमो परमाणू परिणामगुणो सयमसद्दो ॥७८, -पचास्ति। अर्थात्-जो पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुका कारण है वह परमाणु । परमाणु द्रव्य है उसमे स्पर्ण, रस, गन्ध और रूप ये चारो गुण इये जाते हैं। इसी कारणसे वह मूर्तिक कहा जाता है। वह परमाणु भविभागी होता है, क्योंकि उसका, आदि, अन्त और मध्य नहीं है। इसीलिये उसका दूसरा भाग नहीं होता। जैन दर्शनकी दृष्टिसे द्रव्य और गुणमें प्रदेशभेद नहीं होता। इसलिये जो प्रदेश परमाणुका है वही चारो गुणोका भी है। अत इन चारो गुणोको परमाणुसे जुदा नहीं किया जा सकता। फिर भी जो किसी द्रव्यमें किसी गुणकी प्रतीति नहीं होती उसका कारण परमाणुका परिणामित्व है, परिण मनशील होने के कारण ही कही किसी गुणकी उद्भूति देखी जाती है और कही किसी गुणकी अनुभूति । किन्तु परमाणु शब्दरूप नहीं है। पुद्गलके दो भेद है-परमाणु और स्कन्ध । प्राचीन शास्त्रोमें परमाणुका स्वरूप इस प्रकार बतलाया है "अत्तादि अत्तमज्झं अत्तत व इदियगेज्झ। ज दव्व अविभागी त परमाणु वियाणाहि ।' जो स्वय ही आदि, स्वय ही मध्य और स्वयं ही अन्तरूप है। 'अर्थात् जिसमें आदि, मध्य और अन्तका भेद नहीं है और जो इन्द्रियोके द्वारा भी ग्रहण नहीं किया जा सकता। उस अविभागी द्रव्यको परमाणु जानो।' 'सन्वेसि खंघाण जो अतो त वियाण परमाणू । सो सस्सदो असहो एक्को अविमागी मुत्तिभवो ॥७७॥ पञ्चास्तिक 'सब स्कन्धोका जो अन्तिम खण्ड है, अर्थात् जिसका दूसरा खण्ड । नही हो सकता, उसे परमाणु जानो। वह परमाणु नित्य है, शब्दरूप 'नही है, एक प्रदेशी है, अविभागी है और मूर्तिक है।
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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