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________________ सिद्धान्त दृष्टिसे वचन व्यवहार करता हुआ देखा गया तो वस्तुका स्वर' समझनेमे श्रोताको कोई धोखा न हो, इसलिये स्याद्वादका आविष्कोप हुआ। __ स्याद्वाद' सिद्धान्तके अनुसार विवक्षित धर्मसे इतर धमा। घोतक या सूचक 'स्यात्' शब्द समस्त वाक्योके साथ गुप्तरूपसे सम्म रहता है । स्यात् गब्दका अभिप्राय 'कथचित्' या 'किसी अपेक्ष से है। अत संसारमे जो कुछ है वह किसी अपेक्षासे नही भी है। इस अपेक्षावादका सूचक 'स्यात्' शब्द है, जिसका प्रयोग अनेकान्तवाल लिये आवश्यक है; क्योकि 'स्यात्' शब्दके विना अनेकान्त' का प्रय शन संभव नहीं है। अत अनेकान्त दृष्टिसे प्रत्येक वस्तु 'स्यात् स्ल और 'स्यात् असत् है। कोई कोई विद्वान् ‘स्यात्' शब्दका प्रयोग शायद' के अर्थमे कर है। किन्तु शायद शब्द अनिश्चितताका सूचक है, जब कि स्यात् शं' एक निश्चित अपेक्षावादका सूचक है । इस प्रकार अनेकान्तवाद फलितार्थ स्यावाद है, क्योकि स्याद्वादके बिना अनेकान्तवादका प्रका संभव नहीं है। अत एक ही वस्तुके सम्बन्धमे उत्पन्न हुए विरि दृष्टिकोणोंका समन्वय स्याद्वादके द्वारा किया जाता है। हम ऊपर लिख' आये है कि शब्दकी प्रवृत्ति वक्ताके अधीन अत. प्रत्येक वस्तुमें दोनों धर्मोके रहनेपर भी वक्ता अपने अपने दा' कोणसे उन धर्मोका उल्लेख करते है। जैसे-दो आदमी कुछ खरीदा लिये एक दूकानपर जाते है। वहाँ किसी वस्तुको एक अच्छी बतला है, दूसरा उसे बुरी बतलाता है । दोनोमें बात बढ़ जाती है। तीसरा आदमी उन्हें समझाता है-'भई क्यो झगडते हो ? ' वस्तु अच्छी भी है और बुरी भी। तुम्हारे लिये अच्छी है और इ लिये बुरी है अपनी अपनी दृष्टि ही तो है । ये तीनों व्यक्ति र प्रकारका वचन व्यवहार करते है। पहला विधि करता है, दूसरा नि और तीसरा विधि और निषेध।
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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