SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जनधर्म देश ही समझता है तो वह भारतको केवल अपने ही दृष्टिकोणले श्विता है, दूसरे भारतीयेतरोंके दृष्टिकोणमे नहीं, और इसलिये उसका गारतदर्शन एकांगी है। पूर्ण दर्शन दिये सब दृष्टिकोणोको दृष्टिमें हसना आवश्यक है | an inaarin यह न वि एक मिमें परस्परमें विरुद्ध तत्त्व वीर जव धर्मो का होना असंभव है। योकि सत्त्वधर्म के रहनेपर असत्त्ववर्म नही रह सकता और असत्त्वधर्मके रहनेपर सत्त्वधर्म नहीं रह नकता । वत नाहंत मत बतंगव " कहाँ तक लगत है यह निप्पल पाठक ही विचार करें। स्याद्वाद इस प्रकार जब प्रत्येक वस्तु परस्पर विरोधो प्रतीत होनेवाले मका समूह है तो उस अनेक धर्मात्मक वस्तुका जानना उतना कठिन ही है, जितना शब्दोंके द्वारा उने कहना कठिन है; क्योकि एक न अनेक धर्मो को एक साथ जान सकता है, किन्तु एक शब्द एक समयमें अस्तुके एक ही धर्मका नांगिक व्याख्यान कर सकता है । इसपर नी व्दिकी प्रवृत्ति वक्ता के अधीन है। वक्ता वस्तुके अनेक धर्मोते किसी एक धर्मकी मुख्यतासे वचन व्यवहार करता है । जैसे, देवदत्तको एक ही समय उसका पिता भी पुकारता है और उसका पुत्र भी पुकारता । पिता उसे 'पुत्र' कहकर पुकारता है और उसका पुत्र उसे 'पिता' किहकर पुकारता है । किन्तु देवदत्त न केवल पिता ही है और न केवल पुत्र ही है किन्तु पिता भी है और पुत्र भी है। इसलिये पिताकी दृष्टिसे देवदत्तका पुत्रत्व धर्म मुख्य है और शेष धर्म गौण है और पुत्रकी दृष्टिते देवदत्तका पितृत्व धर्म मुख्य है और शेप धर्म गौण है; क्योकि अनेक धर्मात्मक वस्तुमेसे जिस धर्मको विवक्षा होती है वह धर्म मुख्य कहाता | है और इतर धर्म गौण । अत. जव वस्तु अनेक धर्मात्मक प्रमाणित । हो चुकी ओर गब्दमें इतनी सामर्थ्य नही पाई गई जो उसके पूरे धर्मों ३ का कथन एक समयमें कर सके । तथा प्रत्येक वक्ता अपनी अपनी គូ १. ब्रह्मसूत्र २-२-३३ का शाकरभाय्य ।
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy