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________________ जनधर्म । वस्तुके उक्त दोनों धर्मोको यदि कोई एक साथ कहना चाहे तो तो कह सकता, क्योकि एक शब्द एक समयमे विधि और निषेधमेसे का ही कथन कर सकता है। ऐसी अवस्थामें वस्तु अवाच्य ठहरती अर्थात् उसे शब्दके द्वारा नहीं कहा जा सकता। उक्त चार वचन वहारोकोदार्शनिकभाषामे स्यात् सत्, स्यात् असत्, स्यात् सदसत् और उत् अवक्तव्य कहते है। सप्तभंगीके मूल यही चार भग है। इन्हीके गसे सात भंग होते है। अर्थात् चतुर्थ भग स्यात् अवक्तव्यके साथ पश पहले, दूसरे और तीसरे भगको मिलानेसे पांचवां, छठा और तवा भग बनता है । किन्तु लोक व्यवहारमें मूल चार तरहके नोका ही व्यवहार देखा जाता है। स स्वामी शंकराचार्यने चौथे भग 'स्यादवक्तव्य' पर भी आपत्ति है। वे कहते है कि-"पदार्थ अवक्तव्य भी नही हो सकते। यदि 'अवक्तव्य है तो उनका कथन नही किया जा सकता है। कथन भी या जाय और अवक्तव्य भी कहा जाये ये दोनों बातें परस्परमें "रुद्ध है"। किन्तु यदि जैन वस्तुको सर्वथा अवक्तव्य कहते तब तो 'चार्य शंकरका उक्त दोषदान उचित होता। किन्तु वे तो अपेक्षा से अवक्तव्य' कहते है, इसीका सुचन करनेके लिये स्यात् शब्द क्तव्यके साथ लगाया गया है जो बतलाता है कि वस्तु सर्वथा अवहव्य नहीं है, किन्तु किसी एक दृष्टिकोणसे अवक्तव्य है। - इससे स्पष्ट है कि आचार्यशकर स्याद्वादको समझ नही सके । लिये स्वर्गीय महामहोपाध्याय डाक्टर गंगानाथ झा ने लिखा है "जबसे मैने शंकराचार्य द्वारा जैनसिद्धान्तका खण्डन पढा है से मुझे विश्वास हुमा है कि इस सिद्धान्तमें बहुत कुछ है, जिसे न्तिके आचार्योने नही समझा। और जो कुछ में अब तक जैनधर्मको । न सका हूँ उससे मेरा यह दृढ विश्वास हुआ है कि यदि वे जैनधर्मको T१ "न चपा पदार्थानामवक्तव्यत्व सभवति। अवक्तव्यरचनोच्योरन् । लो नानाति निनिधि" । --ब्रह्मस० शां० २-२-३३ ।
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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