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________________ सिद्धान्त अपेक्षासे ही उसे सत् कहा जाता है। अपनेसे अन्य वस्तुके स्वरूप अपेक्षासे संसारकी प्रत्येक वस्तु असत् है । देवदत्तका पुत्र संसा भरके मनुष्योंका पुत्र नहीं है और न देवदत्त ससार भरके पुत्रोंका पिर है। क्या इससे हम यह नतीजा नहीं निकाल सकते कि देवदत्तका पुर। पुत्र है और नही भी है। इसी तरह देवदत्तका पिता पिता है और - नही भी है। अत. संसारमें जो कुछ है वह किसी अपेक्षासे नहीं। है। सर्वथा सत् या सर्वथा असत् कोई वस्तु नही है। किन्तु जब जनदर्शन यह कहता है कि प्रत्येक वस्तु सत् भी है औ असत् भी है तो श्रोता इसे असभव समझता है क्योकि जो सत् है वे असत् कैसे हो सकता है? परन्तु ऊपर बतलाये गये जिन दृष्टिकोणोव लक्ष्य करके जनदर्शन वस्तुको सत् और असत् कहता है यदि उन दृष्टि कोणोंको भी समझ लिया जाये तो फिर उसे असभव कहनेका साह नहीं हो सकता। किन्तु जिसे समझनेमे बादरायण जैसे सूत्रकारो औं शंकराचार्य जैसे उसके व्याख्याताओको भी भ्रम हुआ, उसमे या साधारणजनोको व्यामोह हो तो अचरज ही क्या है। बादरायणके सूत्र 'नकस्मिन्नसभवात्' (२-५-३३) की व्याख्य करत हुए स्वामी शकराचार्यने इस सिद्धान्तपर जो सबसे बड़ा दूष दिया है वह है 'अनिश्चितता' । उनका कहना है कि 'वस्तु है औ नही भी है ऐसा कहना अनिश्चितताको बतलाता है। अर्थात् इस वस्तुका कोई निश्चित स्वरूप नही रहता। और अनिश्चितता संशयक। जननी है। अत यदि जैन सिद्धान्तके अनुसार वस्तु अनिश्चित है त उसमें नि:संशय प्रवृत्ति नहीं हो सकती। किन्तु ऊपरके उदहरणो. इस आपत्तिका परिहार स्वय हो जाता है। हम व्यवहारमे भी + विरोधी दो धर्म एक ही वस्तुमें पाते है-जैसे भारत स्वदेश भी है आ विदेश भी, देवदत्त पिता भी है और पुत्र भी। इसमे न कोई कार तता है और न संशय । क्योकि भारतीयोकी दृष्टिसे भारत स्वदेश और विदेशियोंकी दृष्टिसे विदेश है। यदि कोई भारतीय भारतक
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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