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________________ इतिहास जैन होनेके प्रमाण मिलते है। कुछ विद्वानोका मत है कि अशोष पहले जैनधर्मका उपासक था, पीछे बौद्ध हो गया। इसम एक प्रम ' यह दिया जाता है कि अशोकके उन लेखोमें जिनमे उसक स्पष्टत बौद्ध होनेके कोई संकेत नही पाये जाते, बल्कि जैन सिद्धान्तोके है भावोका आधिक्य है, राजाका उपनाम 'देवानापिय पियदसी' ५० जाता है। देवनापिय' विशेषत. जनग्रन्थोमे ही राजाकी उपाधि पाई जाती है। पर अशोकके २२ वे वर्षकी भावराकी प्रशस्तिम जिसमें उसके बौद्ध होनेके स्पष्ट प्रमाण है, उसकी पदवी केवर 'पियदसि' पाई जाती है, 'देवाना पिय' नही। इसी बीचमे वह जैनर बौद्ध हुमा होगा। विद्वानोका यह भी मत है कि अशोकने अहिंसावं विषयमे जो नियम प्रचारित किये थे वे बौद्धोकी अपेक्षा जनार अधिक मिलते हैं। जैसे, वहुतसे पक्षियो और चौपायोका, जो वि न भोगमे आते है न खाये जाते है, मारना वर्जित करना, केवल अनर्थ और विहिंसाके लिये जगलोको जलानेका निषेध करना और कुछ खास तिथियो और पर्वोपर जीवहिंसाको बन्द कर देना आदि । प्रो कर्नलने, जो बौद्धशास्त्रोके बहुत बड़े अधिकारी विद्वान् माने जाते रहे है यह स्वीकार किया है कि अशोककी राज्यनीतिमें बौद्धप्रभा खोजने पर भी नहीं मिलता। उसकी घोषणाएं,जो मितव्ययी जीवनसे सम्बद्ध है-बौद्धोकी अपेक्षा जैन विचारोसे अत्यधिक मेल खाती है । सम्राट सम्प्रति (ई० पू० २२०) "सम्प्रति अशोकका पौत्र था। इसे जैनाचार्य सुहस्तीने उज्जैनमे जैनधर्मकी दीक्षा दी थी। उसके बाद सम्प्रतिने 'जैनधर्मके लिये वही १. इन्डियन ए टीक्वेरी, जिल्द ५ में। २. 'अरली फेथ ऑफ अशोक ।' ३. देखो-भारतीय इतिहासकी रूपरेखा, पृ.० ६१६ । जिनप्रम सूरिन पाटलिपुत्र कल्पग्रन्थम एक स्थानपर लिखा है"कुणालसूनुस्त्रिखण्डभरताधिप. परमाहतो अनार्यदेशेष्वपि प्रवर्तितश्रमण
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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