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________________ इतिहास वेषमे नग्न विचरण करते थे। मौनसे रहते थे, कोई डराये, मारे ऊपर थूके, पत्थर फेके, मूत्रविष्ठा फेके तो इन सबकी ओर ध्यान नह देते थे। यह शरीर असत् पदार्थोका घर है ऐसा समझकर अहंकार ममकारका त्याग करके अकेले भ्रमण करते थे। उनका कामदेव समान सुन्दर शरीर मलिन हो गया था। उनका क्रियाकर्म बडा भयान' हो गया था। शरीरादिकका सुख छोड़कर उन्होंने 'भाजगर' व्रत - लिया था। इस प्रकार कैवल्यपति भगवान ऋषभदेव निरन्तर पर, आनन्दका अनुभव करते हुए भ्रमण करते करते कोक, वेक, कुटक, दक्षिण, कर्नाटक देशोंमे अपनी इच्छासे पहुंचे, और कुटकाचल पर्वतके उपवन उन्मत्तकी नाई नग्न होकर विचरने लगे। जंगलमे बांसोकी रगड़से आग लग गई और उन्होने उसीमे प्रवेश करके अपनेको भस्म कर दिया। इस तरह ऋषभदेवका वर्णन करके भागवतकार मागे लिखते है। 'इन ऋषभदेवके चरित्रको सुनकर कोंक बेक कुटक देशोका राजा अर्हन उन्हीके उपदेशको लेकर कलियुगमे जव अधर्म बहुत हो जायगा तक स्वधर्मको छोड़कर कुपय पाखंड (जनधर्म) का प्रवर्तन करेगा । तु, मनुष्य मायासे विमोहित होकर, शौच माचारको छोडकर ईश्वरको अवज्ञा करनेवाले व्रत धारण करेगे।न स्नान,न आचमन, ब्रह्म, ब्राह्मणां यज्ञ सबके निन्दक ऐसे पुरुष होगे और वेद-विरुद्ध आचरणकरके नरक गिरेगे। यह ऋपभावतार रजोगुणसे व्याप्त मनुष्योको मोक्षमार्गः सिखलानेके लिये हुमा।' १“यस्य किलानुचरितमुपाकर्ण्य कोतवेलकुटकाना राजा अहंसामोपशिक्ष्य कलावधर्म उत्कृष्यमाणे भवितव्येन विमोहित स्वधर्मपयमकुतोभयमपहाय कुपथपाखण्डमसमजस निजमनीषया मन्द सम्प्रवर्तयिष्यते ॥६॥ येन वाव कला, मनुजापसदा देवमायामोहिता स्वविधिनियोगशौच-चारित्रविहीना देवहेलना, न्यपन्नतानि निजेच्छया गृह्णाना अस्नानाचमनशौचकेशोल्लुचनादीनि कलिना धर्मबहुलेनोपहतधियोब्रह्म-ब्राह्मण-यज्ञ-पुरुषलोकविदूषका प्रायेण भविष्यन्ति।।१०।' ते च स्वपक्तिनया निजलोकयानयाऽन्धपरम्परया श्वस्ता. तमस्यन्यै स्वयमेका पतिष्यन्ति । अयमवतारो रजसोपप्लुतकवल्योपशिक्षणार्थ.॥"स्क० ५, २०६।
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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