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________________ जनधर्म सर्पिणीकाल या विकासकाल कहते है। इन दोनों कालोंकी अवधि खों करोडों वर्षोंसे भी अधिक है। प्रत्येक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणीलके दुखसुखरूप भागहें २४ तीर्थड्रोंका जन्म होता है, जो 'जिन' वस्थाको प्राप्त करके जनधर्मका उपदेश देते है। इस समय अवपिणीलि चाल है। उसके प्रारम्भके चार विभाग बीत चुके है और अव म उसके पांचवें विभागमेंसे गुजर रहे है। चूंकि चौथे विभागका न्त हो चुका, इसलिये इस कालमें अब कोई तीर्थङ्कर नहीं होगा। 'स युगके २४ तीर्थङ्करोमेंसे भगवान ऋषभदेव प्रथम तीथंकर थे और भगवान महावीर अन्तिम तीर्थकर थे। तीसरे कालविभागमें व तीन वर्ष ८|माह शेष रहे तब ऋषभदेवका निर्वाण हुआ और थे कालविभागमें जब उतना ही काल शेप रहा तव महावीरका तर्वाण हुआ । दोनोंका अन्तरकाल एक कोटा-कोटी सागर बतलाया चिाता है। इस तरह जैन परम्पराके अनुसार इस युगमें जैनधर्मके ध्यम प्रवर्तक भगवान ऋषभदेव थे। प्राचीनसे प्राचीन जनशास्त्र स विषयमें एक मत है और उनमें ऋषभदेवका जीवन-चरित बहुत खस्तारसे वर्णित है। जैनेतर साहित्य । * जनतर साहित्यमें श्रीमद्भागवतका नाम उल्लेखनीय है। इसके नाँचवें स्कन्धके, अध्याय २-६ में ऋषभदेवका सुन्दर वर्णन है, जो दान साहित्यके वर्णनसे कुछ अंशमें मिलता जुलता हुबा भी है। उसमे लिखा है कि जब ब्रह्माने देखा कि मनुष्यसख्या नहीं वढी तो उसने स्वयंभू मनु और सत्यल्पाको उत्पन्न किया। उनके प्रियव्रत नामका लड़का हुआ। प्रियवतका पुत्र अग्नीघ्र हुआ । अग्नीघ्रके घर नाभिने जन्म लिया। नाभिने मरुदेवीसे विवाह किया और उनसे ऋषभदेव पत्पन्न हुए । ऋषभदेवने इन्द्रके द्वारा दी गई जयन्ती नामकी भार्याते धौ पुत्र उत्पन्न किये, और बड़े पुत्र भरतका राज्याभिषेक करके संन्यात ले लिया। उस समय केवल शरीरमात्र उनके पास था और वे दिगम्वर प..
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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