SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनवमं श्रीमद्भागवतके उक्त कथनमेंते यदि उस अंगको निकाल दिया ये, जो कि धार्मिक विरोधके कारण लिखा गया है तो उससे बरावर ध्वनित होता है कि ऋषभदेवने ही जैनवमंका उपदेश दिया था कि जैन तीर्थङ्कर ही केवल ज्ञानको प्राप्त कर लेने पर 'जिन' हेतु' आदि नामोसे पुकारे जाते है और उसी अवस्थामें वे धर्मोपदेश ते हैं जो कि उनकी उस अवस्थाके नाम पर जैनवमं या आहेत धर्म हलाता है । सम्भवत दक्षिणमें जैनधर्मका अधिक प्रचार देख कर गवतकारने उक्त क्ल्पना कर डाली है । यदि वे सीधे ऋषभदेवसे जैनधर्मकी उत्पत्ति बतला देते तो फिर उन्हें जैनधर्मको बुरा भला हनेका अवसर नही मिलता । अस्तु, श्रीमद्भागवतमें ऋषभदेवजीके रा उनके पुत्रोको जो उपदेश दिया गया है वह भी बहुत नंशनें जैनमँके अनुकूल ही है । उसका सार निम्न प्रकार है (१) हे पुत्रो ! मनुष्यलोकमें शरीरधारियोंके वीचमें यह रीर कष्टदायक है, भोगने योग्य नही है । अतः दिव्य तप करो, तससे अनन्त सुखकी प्राप्ति होती है । (२) जो कोई मेरेसे प्रीति करता है, विषयी जनोसे, स्त्रीसे, त्रसे और मित्रसे प्रीति नही करता, तथा लोकमें प्रयोजनमात्र सक्ति करता है वह समदर्शी प्रशान्त और साबु है । (३) जो इन्द्रियोकी तृप्तिके लिये परिश्रम करता है उसे हम अच्छा नही मानते ; क्योकि यह शरीर भी आत्माको क्लेशदायी है । (४) जब तक सावू आत्मतत्त्वको नही जानता तब तक वह ज्ञानी है । जव तक यह जीव कर्मकाण्ड करता रहता है तब तक तव मौका शरीर और मन द्वारा आत्मा बन्य होता रहता है। ( (५) गुणोके अनुसार चेष्टा न होनेसे विद्वान् प्रमादी हो, ज्ञानी बन कर मैथुनसुखप्रवान घरमें वसकर अनेक संतापोको प्त होता है । (६) पुरुषका स्त्रीके प्रति जो कामभाव है यही हृदयकी [न्य है । इसीसे जीवको घर, खेत, पुत्र, कुटुम्ब और धनले मोह होता है ।
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy