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________________ इतिहास करती है, जो बहुतसी शताब्दियो पूर्व हुए है। इस वातके प्रमाण प जाते है कि ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दीमे प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेवकी होती थी। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जैनधर्म वर्धमान और पाश नायसे भी पहले प्रचलित था। यजुर्वेदमे ऋषभदेव, अजितनाथ में अरिष्टनेमि इन तीन तीर्थरोके नामोका निर्देग है। भागवत । भी इस वातका समर्थन करता है कि ऋषभदेव जैनधर्मके संस्थापक थे उक्त दो मतोंसे यह वात निर्विवाद हो जाती है कि व पार्श्वनाथ भी जैनधर्मके सस्थापक नही थे और उनसे पहले भी जैनध प्रचलित था। तथा जैन परम्परा श्रीऋषभदेवको अपना प्रथम तीर्थ मानती है और जनेतंर साहित्य तथा उपलब्ध ऐतिहासिक सामग्री भी इस बातकी पुष्टि होती है। नीचे इन्ही बातोंको स्पष्ट किर जाता है। जैन-परम्परा जैन परम्परा अनुसार हमारे इस दृश्यमान जगतमे कालका च सदा घूमा करता है । यद्यपि कालका प्रवाह अनादि और अनन्त तथापि उस कालचक्र छ विभाग है-१ अतिसुखरूप, २ सुखरूप, सुख-दुखरूप, ४ दुःखसुखरूप, ५ दुखरूप और ६ अतिदुखरूप । जन चलती हुई गाडीके चक्रका प्रत्येक भाग नीचसे ऊपर और ऊपरसे नी जाता आता है वसे ही ये छ भाग भी क्रमवार सदा घूमते रहते है अर्थात् एक बार जगत् सुखसे दुःखकी ओर जाता है तो दूसरी वा दुःखसे सुखकी ओर बढ़ता है। सुखसे दुखकी ओर जानेको अवसर्पिणी काल या अवनतिकाल कहते है और दुःखसे सुसकी और जानेक doubt that Jainism prevailed even before Vardhaman or Parsvanath The Yajurveda mentions the names o three tirthankaras-Rishabha, Ajitabath and Aristanem The Bhagavata Puran endorses the view that Rishabh was the founder of Jainism. -Indian Philosopby. Vo .P.287.
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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