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________________ २०४ जैनधर्म विनाशने युद्ध लड़नेवालोको भी भयभीत कर दिया है। सव चाहते है युद्ध न हो, किन्तु युद्धके जो कारण है उन्हें छोडना नहीं चाहते। सर्वत्र राजनीतिक और मार्थिक सघटनोंमें पारस्परिक अविश्वास और प्रतिहिंसाकी भावना छिपी हुई है। दूसरोको बेवकूफ बनाकर अपना कार्य साधना ही सवका मूलमत्र बना हुआ है, फिर शान्ति हो तो कैसे हो और युद्ध रुके तो कैसे रुके ? आधुनिक समस्याके इस विहंगावलोकनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि विभिन्न राष्ट्रों और जातियोके वीचमें हिंसामूलक व्यवहारका प्राधान्य है। स्वार्थपरता, बेईमानी, घोखेबाजी ये सब हिंसाके ही प्रतिरूप है। इनके रहते हुए जैसे दो व्यक्तियोंमें प्रीति और मंत्री नहीं हो सकती वैसे ही राष्ट्रो और जातियोंमे भी मैत्री नही हो सकती। 'जियो और जीने दों का जो सिद्धान्त व्यक्तियोंके लिये है वही जातियों और राष्ट्रोके लिये भी है। जब तक विभिन्न राष्ट्र और जातियाँ इन सिद्धान्तको नही अपनाते तब तक विश्वको समस्याएं नहीं सुलझ सकती, बल्कि और उलझती ही जायेंगी, जैसा कि प्रत्यक्षमे दिखलाई पड़ता है । अत विश्वकी समस्याओको सुलझानेके लिये राष्ट्रोंकी शासनप्रणालीमें आमूल परिवर्तन होना चाहिये और सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्थाओमे सशोधन होना चाहिये। तथा वह परिवर्तन और संशोधन अहिंसाके सिद्धान्तको जीवनपथके रूपमें स्वीकार करके किया जाना चाहिये। यह नही भूल जाना चाहिये कि वलप्रयोगके आधारपर मानवीय सम्बन्वोंकी भित्ति कभी खडी नहीं की जा सकती। कौटुम्विक और सामाजिक जीवनके निर्माणमें बहुत अंगोंमें सहानुभूति, दया, प्रेम, त्याग और सौहार्दका ही स्थान रहता है। एक बात यह भी स्मरण रखनी चाहिये कि व्यक्तिगत आचरणका और सामाजिक वातावरण' का निकट सम्बन्ध है । व्यक्तिगत आचरणसे सामाजिक वातावरण बनता है और सामाजिक वातावरणसे व्यक्तित्वका निर्माण होता है।
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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