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________________ चारिन २०५ किसी समाजके अन्तर्गत व्यक्तियोका आचरण यदि दूपित हो तो सामाजिक वातावरण कभी शुद्ध हो ही नही सकता, और सामाजिक वातावरणके शुद्ध हुए विना व्यक्तियोके आचरणमे सुधार होना शक्य नहीं। इसलिये व्यक्तिगत आचरणके सुधारके साथ साथ सामाजिक वातावरणको भी स्वच्छ बनानेकी चेष्टा होनी चाहिये । इसीसे जैनधर्म प्रत्येक व्यक्तिके आचरण निर्माणपर जोर देते हुए उसके जीवनसे हिसामूलक व्यवहारको निकालकर पारस्परिक व्यवहारमे मैत्री, प्रमोद और कारुण्यकी भावनासे बरतनेकी सलाह देता है। इतना ही नहीं, बल्कि वह तो यह भी चाहता है कि राजा भी ऐसा ही धार्मिक हा, क्योकि राजनीतिमे अधार्मिकताके घुस जानेसे राष्ट्रभरका नैतिक जीवन गिर जाता है और फिर व्यक्ति यदि अनैतिकतासे बचना भी चाहे तो बच नहीं पाता, अनेक वाहिरी प्रलोभनो और आवश्यकतामोसे देवकर वह भी अनर्थ करनेके लिए तत्पर हो जाता है, जिसका उदाहरण युद्धकालमें प्रचलित चोरबाजार है । अत राजनीति, समाजनीति और व्यक्तिगत जीवनका आधार यदि अहिसाको बनाया जाये तो राजा और प्रजा दोनो सुख शान्तिसे रह सकते है। ___ आज जिन देशोमे प्रजातन्त्र है, उन देशोमे यद्यपि अपनी अपनी जनताक सुख दुखका ध्यान पूरा पूरा रखा जाता है, किन्तु दूसरे दशीको जनताके साथ वैसा ही व्यवहार नही किया जाता । बातें अच्छी अच्छी कही जाती है किन्तु व्यवहार उनसे बिल्कुल विपरीत किया जाता है। दूसरे देशोपर अपना स्वत्व बनाये रखनेके लिए राजनैतिक गुटबन्दियाँ की जाती है। उनके विरुद्ध झूठा प्रचार करनेके लिए लाखो रुपया व्यय किया जाता है और यह कहा जाता है कि हम उनकी मलाइक लिए ही उनपर शासन कर रहे हैं। शासनतंत्रके द्वारा अपना भावकार जमाकर उन देशोके धन और जनका मनमाना उपयोग किया जाता है। यह सब हिंसा, असत्य और चोरी नहीं है तो क्या है ? यदि राष्ट्रोका निर्माण अहिंसाके आधारपर किया जाये और असत्य व्यवहार
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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