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________________ चारित्र २०३ है। धनको पाकर दुर्जनको मद होता है किन्तु सज्जन उससे परोपकार करता है। शक्ति पाकर एक दूसरोको सताता है तो दूसरा उसे ही पाकर आतताइयोंके हाथोसे पीडितोंकी रक्षा करता है। विज्ञानने दूरीका अन्त कर दिया है और विश्वकी विभिन्न जातियो और राष्ट्रोको इतने निकट ला दिया है कि वे यदि परस्परमे सम्बद्ध होकर रहना चाहे तो एक सूत्रमें वद्ध होकर रह सकते है क्योकि विज्ञानने सगठनके अनेक नये साधन प्रस्तुत कर दिये है। तथा उत्पादनके भी ऐसे ऐसे साधन' दिये है जिनसे संसारके सभी स्त्री-पुरुष सुखपूर्वक अपना जीवन बिता सकते है। किन्तु उन साधनोपर आज अमुक वर्गो और राष्ट्रोंका अधिकार है और वे उनका उपयोग दूसरोंपर अपना प्रभुत्व स्थापित करने और स्थापित किये हुए प्रभुत्वको बनाये रखनेमे करते है। जंगलमे शिकारकी खोजमे भटकनेवाला व्याघ्र अपने नुकीले पजों और पैने दांतोंका जैसा उपयोग अपने शिकारके साथ करता है, वैज्ञानिक साधनोंसे सम्पन्न राष्ट्र भी दूसरे राष्ट्रोकी छातीपर आज अपने वैज्ञानिक साधनो-. का वैसा ही उपयोग करते दिखलाई देते है । फलत. युद्धोकी सृष्टि होती है और राष्ट्रोंका धन और जन उनकी भेट चढा दिया जाता है। मानो, उनका इससे अच्छा कोई दूसरा उपयोग हो ही नहीं सकता। एक ओर नये साधनोंके द्वारा खेतोंसे खूब अन्न उपजाया जाता है, मिले रात दिन कपडे तैयार करने में लगी रहती है, दूसरी ओर असंख्य मनुष्य विना अन्न और वस्त्रके जीवन विता देते है। एक ओर जिन्हे । अन्न और वस्त्रकी आवश्यकता है वे दाने दानेके लिये तरसते है और दूसरी ओर जिन्हे उनकी आवश्यकता नही है वे अनावश्यक सचयके भारसे दवे रहते है। शान्ति और सुरक्षाके लिये कानूनोंकी सृष्टि की जाती है और उन्हे जवरदस्ती पलवानेके लिये पुलिस, सेना और जेलखानोकी सृष्टि की जाती है। अन्यायके लिये न्यायका ढोग रचा जाता है और सत्यको छिपानेके लिये असत्य प्रोपगण्डा किया जाता है। ये समस्याएं सारे ससारके सामने उपस्थित है। युद्धके महा
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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