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________________ ६-श्रावकधर्म और विश्वकी समस्याएँ आज सभी धर्मोंके सामने यह प्रश्न रखा जाता है कि वे वर्तमान वश्वकी समस्याओंको हल करनेमे कहाँतक आगे आते है ? यह पश्न न भी रखा जावे तो भी धोंके सामने यह प्रश्न तो है ही के केवल व्यक्तिके अभ्युदय और निश्रेयस प्राप्तिके लिये ही धोकी पुष्टि की गई है या उनसे समाज और राष्ट्रका भी अभ्युदय हो सकता है? यहां हम ऊपर बतलाये गये जैन श्रावकके धर्मके प्रकाशमें उक्त प्रश्न को सुलझानेका प्रयल करते है। यह सत्य है कि धर्मकी सृष्टि व्यक्तिके अभ्युदयके लिये हुई किन्तु व्यक्ति समाज, राष्ट्र और विश्वसे कोई पृथक् वस्तु नहीं है। व्यक्तियोका समूह ही समाज, राष्ट्र और विश्वके नामसे पुकारा जाता है । आज जिन्हें विश्वकी समस्याएं कहा जाता है वस्तुत. वे उस विश्वमे वसनेवाले व्यक्तियोंकी ही समस्याएं है। माना, व्यक्ति एक इकाई है, किन्तु अनेक इकाईयां मिलकर ही दहाई, सैकडा आदि सख्याएँ वनती है, अत. व्यक्तिके अभ्युदयके लिये जन्मा हुआ धर्म जब किसी एक खास व्यक्तिके अभ्युदयका कारण न होकर व्यक्तिमात्रके अभ्युदयका कारण है तो कि व्यक्तिमात्रमे विश्वके सभी व्यक्ति मा जाते है अत वह विश्वके भी अभ्युदयका कारण हो सकता है। किन्तु विश्वको उसे अपनाना चाहिये। अस्तु, पहले हमें यह देखना चाहिये कि आजके युगको वे कौनसी समस्याएं है, जिन्हें हमे हल करना है, और उनका मूल कारण क्या है? पिछले दो सौ वर्षोंमें विज्ञानने बड़ी उन्नति की है। उसने ऐसे ऐसे यंत्र प्रदान किये है, जिनसे विश्वका संरक्षण और संहार दोनों ही संभव है। क्योंकि किसी वस्तुका अच्छा उपयोग भी किया जा सकता है और बुरा उपयोग भी किया जा सकता है। उपयोग करना तो मनुष्यके । हायकी बात है, उसमे वेचारी वस्तुका क्या अपराध विद्या जैसीउत्तम वस्तु भी दुर्जनके हायमें पडकर ज्ञानके स्थानमें विवादको जन्म देती
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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