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________________ · चारित्र करके ब्रह्मचारी बन जाता है । ब्रह्मचर्यके लाभ बतलाना सूर्यको दीप दिखाना है । आत्मिक शक्तिको केन्द्रित करनेके लिये ब्रह्मचर्य अपूर्व वस्तु है । किन्तु होना चाहिये वह ऐच्छिक | विना इच्छा जवरदस्ती ब्रह्मचर्य पालनेसे न शारीरिक लाभ होता है और न मानत क्योकि ब्रह्मचर्यका मतलब केवल शारीरिक कामभोगसे निवृत्ति नही है, बल्कि पांचों इन्द्रियोके विषयोसे निवृत्तिका नाम ही ब्रह्म है । यदि केवल कामेन्द्रियका ही नियत्रण किया गया और अन्य इन्द्रिय को काबू न रखा गया तो कामेन्द्रियका नियंत्रण भी टूट जायेगा । ८ आरम्भविरत पहलेकी सात प्रतिमाओं का पालन करनेवाल श्रावक जब जीविकाके साधन कृषि, नोकरी या व्यापार वगैरहके कर और करानेका त्याग कर देता है तो वह आरम्भविरत कहा जाता है। ब्रह्मचर्य धारण करके अपने कौटुम्बिक जीवनको वह पहले ही मर्यादि कर देता है । और जव देखता है कि अब मेरे लडके कमाने लायक ह गये है तो उनको अपना काम धन्धा सौंपकर आप उससे विरत हो ज है, किन्तु उन्हे सम्मति वगैरह देता रहता है । e परिग्रहविरत — पहलेकी आठ प्रतिमानोका पालन करनेवाल श्रावक जब अपनी जमीन जायदाद वगैरहसे अपना स्वत्व छोड देन है तो वह परिग्रहविरत कहा जाता है । बाठवी प्रतिमामें वह अपना उद्योग धन्धा पुत्रोके सुपुर्द कर देता है मगर सम्पत्ति अपने ही आयकार रसता है । जब वह देख लेता है कि लडकेने उद्योग धन्धेको भली भांति समझ लिया है, अव यदि सम्पत्ति भी उसके सुपुर्द कर दी जाये तो पह उनका रक्षण कर सकता है, तब वह पञ्चोके नामने अपने पुन या दत्तक पुनको बुलाकर कहता है कि 'हे पुन । आजतक हमने इस हत्याश्रमका पालन किया। अब विरक्त होकर हम इसे छोडना चाहते हैं। उनलिये तुम हमारा स्थान स्वीकार करो। अपनी आत्माको शुद्ध करनेके लिये इच्छुक पिताका भार सम्हालकर जो उनकी सहायता करता है वही पुत्र हैं, और जो ऐसा नही करना, यह पुत्र नहीं है, यह है । सलिये
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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