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________________ १९०६ जैनधर्म रा यह धन, धार्मिक स्थान तथा कुटुम्वीजनका भार सम्हाल कर मुझे प्रभारसे मुक्त करो; क्योकि इससे मुक्त हुए बिना कोई भी कल्या र्थी अपना कल्याण नहीं कर सकता । मुमुक्षुजनोके लिये सर्वस्व ग ही पथ्य है।' इस प्रकार सब कुछ पुत्रको सौंपकर वह गार्हस्थिक उत्तरदायित्वसे क्त हो जाता है। किन्तु मुक्त होनेपर भी वह सहसा घर नहीं छोडता, और उदासीन होकर कुछ काल तक घरमें ही रहता है। लड़का यदि सी कार्यमे उससे सलाह मांगता है तो उचित सम्मति दे देता है। १० अनुमतिविरत-पहलेकी नौ प्रतिमाओमे अभ्यस्त हुआ विक जब देख लेता है कि अब लडका विना मेरी सलाहके भी सब म सम्हाल सकता है तो लेन देन, खेती, वनिज और विवाह आदि किक कार्योमे अनुमति देना वन्द कर देता है, तब वह अनुमतिविरत हा जाता है। अब वह घरमे न रहकर मन्दिर वगैरहमे रहने लगता और अपना समय स्वाध्यायमे विताता है। तथा मध्याह्नकालकी मायिक करने के बाद आमत्रण मिलनेपर अपने या दूसरोके घर भोजन र आता है। भोजनमे वह अपनी कोई रुचि नहीं रखता। अपने त नियमके अनुसार जो मिलता है खा लेता है और यही विचारता कि गरीरकी स्थितिके लिये भोजनकी आवश्यकता है, और शरीरको नाये रखना धर्मसेवनके लिये आवश्यक है। कुछ दिन इसी तरह विताकर जब वह देख लेता है कि अब मै र छोड़ सकता हूँ तो अपने गुरुजनों, वन्धु-बांधवो और पुत्र वगैरहते छकर घर छोड़ देता है। ११ उद्दिष्टविरत-यह अन्तिम उत्कृष्ट श्रावक अपने उद्देश्यसे नाये गये आहारको ग्रहण नहीं करता, इसलिये इसे उद्दिष्टविरत कहते है । इसके दो भेद होते है । पहला भेदवाला उत्कृप्ट श्रावक फेद लगोटी लगाता है और एक सफेद चादर मात्र अपने पास रखता , तया कंची या छुरेने अपने केगोंको वनवाता है। और जब किसी
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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