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________________ जैनधर्म तटसे समानरूपसे दो टुकडोमें टूट जाती है वह सप्रतिष्ठित है और जो गोडो कहीसे और टूटती है कहीसे, वह अप्रतिष्ठित है। जिस वनस्पतिको छीलनेपर मोटा छिलका उतरता है वह सप्रतिष्ठित है और जिसका छिलका पतला उतरता है वह अप्रतिष्ठित है। जिस वनस्पतिके ऊपरकी गरियां, या शिराएं स्पष्टरूपसे नहीं निकली है, या अन्दर फांक अलग अलग नही हुई है वह सप्रतिष्ठित है और जिसमें फांके अलगअलग पड गई है या गिरायें और घारियां स्पष्ट उभर आई है उसे अप्रतिष्ठित कहते है। ६ दिवामथुनविरत--पहलेकी पांच प्रतिमाओका पालन करनेवाला श्रावक जब दिनमे मन, वचन और कायसे स्त्रीमात्रके सेवन करने- ' का त्याग कर देता है तब वह दिवामथुन विरत कहाता है। पहले पाँचवी प्रतिमामे इन्द्रिय मदकारक वस्तुओके खान-पानका त्याग करके इन्द्रियोको संयत करनेकी चेप्टा की गई है। और छठी प्रतिमाम दिनमें कामभोगका त्याग कराकर मनुष्यको कामभोगकी लालसाको रात्रिके ही लिये सीमित कर दिया गया है। कहा जा सकता है कि दिनमें मैथुन तो बहुत ही कम लोग करते है, अत इसका त्याग करानेमें क्या विशेषता है ? किन्तु मैथुनका मतलब केवल कायिक भोगसे ही नही है, परन्तु उस तरहको वातें करना और मनमें उस तरहके विचारोका होना भी मैथुनमें सम्मिलित है । तथा दिनमे मनुष्य बहुतसे स्त्री पुरुषोके दृष्टिसपर्क में आता है जिन्हें देखकर उसकी कामवासना जाग्रत होनेकी सभावना रहती है। अत दिनमें इस तरहकी प्रवृत्तियोसे बचाकर मनुष्यको पूर्ण ब्रह्मचर्यकी ओर ले जाना ही इसका लक्ष्य है। ७ ब्रह्मचारी-ऊपर कहे गये संयमके अभ्याससे अपने मनको वशमें करके जो मन, वचन और कायसे कभी भी किसी स्त्रीका सेवन नहीं करता उसे ब्रह्मचारी कहते हैं। पहले छठे दर्जेमें दिनमें मैथुनका त्याग कराया है, सातवें दर्जेमें रात्रिमें भी सदाके लिये मैथुनका त्याग
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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