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________________ चारित्र १५३ अनावश्यक सचयवृत्ति ही है। यदि सभी मनुष्य अपनी अपनी आव श्यकताके अनुसार ही वस्तुओंका सचय करें और अनावश्यक संग्रहको समाजके उन दूसरे व्यक्तियोंको सौप दे जिनको उसकी आवश्यकता है तो आज दुनियामें जितनी अशान्ति मची हुई है उतनी न रहे और सम्पत्तिक बँटवारेका जो प्रश्न आज दुनियाके सामने उपस्थित है, वह विना किसी कानूनके स्वय ही बहुत कुछ अशोमे हल हो जाये।। दुनियाकी अनियत्रित इच्छाको लक्ष्य करके जैनाचार्य श्री गुणभद्र स्वामीने संसारके प्राणियोको सम्बोधन करते हुए कहा है "आशागतः प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम् -- कस्य किं कियदायाति वृथा वो विषयषिता ॥३६॥" मात्मानु। 'प्रत्येक प्राणीमे आशाका इतना बडा गढा है जिसमे यह विश्व अणुके बराबर है। ऐसी स्थितिमे यदि इस विश्वका बंटवारा किया जाये तो किसके हिस्समे कितना आयेगा ? अत ससारके तुष्णालु प्राणियो! तुम्हारी विपयोकी चाह व्यर्थ ही है।' अत प्रत्येक श्रावकको विश्वकी सम्पत्ति और उसकी चाहमें तडपनेवाले असंख्य प्राणियोंका विचार करके धनकी तृष्णासे विरत ही रहना चाहिये, क्योकि न्यायकी कमाईसे मनुष्य जीवन निर्वाह कर सकता है किन्तु धनका अटूट भण्डार एकत्र नहीं कर सकता । अटूट भण्डारतो पापकी कमाईसे ही भरता है, जैसा कि उन्ही गुणभद्राचार्यने कहा है शुद्धनिविवर्धन्ते सतामपि न सम्पदः । न हि स्वच्छाम्वभि पूर्णाः कदाचिदपि सिंघव. ॥४५॥" आत्मानु० । 'सज्जनोंकी भी सम्पत्ति शुद्ध न्यायोपार्जित धनसे नहीं बढती। क्या कभी नदियोंको स्वच्छ जलसे परिपूर्ण देखा गया है।' नदियाँ जब भी भरती है तो वर्षाक गदे पानीसे ही भरती है, उसी तरह धनकी वृद्धि भी न्यायकी कमाईसे नहीं होती। अत. आ श्यक धनका परिमाण करके मनुष्यको अन्यायकी कमाईसे बचना
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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