SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 188
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - १८२ जैनधर्म चीजकी चाह ही है, क्योकि चाह होनपर मनुष्य परिग्रहका संचय किये विना नही रह सकता। और सचयकी वृत्ति आनेपर न्याय अन्याय और युक्त अयुक्तका विचार नही रहता। फिर तो मनुष्य धनका कीजा वन जाता है, वह धनका स्वामी न रहकर उसका दास हो जाता है। द्रव्य दान करके भी उससे उसका ममत्व नहीं छूटता। उस वह अपने पास ही रखना चाहता है। उसे भय रहता है कि उसके दिये हुये द्रव्यको कोई हडप न जाये । वह चाहता है कि उससे उसकी खूब कीति हो, लोग उसका गुणगान करे, उसके दोषोपर परदा डाल दिया जाये, अखवारोंमे उसकी खूब बडाई छापी जाये। यह सब ममत्वभावका ही फल है। उससे छुटकारा मिले विना परिग्रहसे छुटकारा नही मिल सकता । देखा जाता है कि जब तक हम किसी वस्तुको अपनी नही समझते तब तक उसके भले बुरेसे न हमे प्रसन्नता होती है और न रंज। किन्तु ज्योंही किसी वस्तुमें यह हमारी है' ऐसी भावना हो जाती है त्योही मनुष्य उसकी चिन्तामें पड़ जाता है । इसलिये ममत्व ही परिग्रह है। उसके कम किये विना परिग्रहरूपी पापसे छुटकारा नही मिल सकता। __जैसे रुपया वगैरह वाय परिग्रह है वैसे ही काम, क्रोध, मद, मोह आदि भाव अभ्यन्तर परिग्रह है । बाहय परिग्रहके समान ही 'इन आन्तर परिग्रहोको भी घटाना चाहिये। परिग्रहको घटानेका एक ही उपाय है कि मनुष्य अपनी आवश्यकताओंको ध्यानमे रखकर ररुपया पैसा जमीन जायदाद वगैरह सभी वस्तुओंकी एक मर्यादा नियत किर ले कि इससे ज्यादा में अपने पास नही रखूगा। ऐसा करनेसे उसके [पास अनावश्यक द्रव्यका संग्रह भी नहीं हो सकेगा, और आवश्यकिताके अनुसार द्रव्य उसके पास होनेसे स्वयं उसे भी कोई कप्ट न होगा। हंसाथ ही साथ वह बहुत सी व्यर्थकी हाय हायसे भी बच जायेगा और अपना जीवन सुख और सन्तोषके साथ व्यतीत कर सकेगा। आज दुनियामें जो आर्थिक विपमता फैली हुई है उसका कारण मनुप्यकी
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy