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________________ १८४ जैनधर्म .चाहिये। इससे वह स्वयं सुखी रहेगा और दूसरे लोग भी उसके दुःखके कारण नही बनेंगे। इस व्रतके भी पांच दोष है, जिनसे बचना चाहिये। १-लोभमे आकर मनुष्य और पशुमसे शक्तिसे अधिक काम लेना। २-धान्य वगैरह आगे खूब मुनाफा देगा इस लोभसे धान्यादिकका अधिक संग्रह करना, जैसा युद्धकालमे किया गया था। ३-इस तरहके धान्य-सग्रहको थोड़े लाभसे बेंच देनेपर या धान्यका संग्रह ही न करनपर या दूसरोंको घान्य-सग्रहसे अधिक लोभ होता हुआ देखकर खेदखिन्न होना। ४पर्याप्त लाभ उठानेपर भी उससे अधिक लाभकी इच्छा करना। ५--और अधिक लाभहोताहुआ देखकरधनादिककी की हुई मर्यादाको वढा लेना। श्रावकके भेद श्रावकके तीन भेद है-पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक । जो एक देशसे हिंसाका त्याग करके श्रावक धर्मको स्वीकार करता है उसे पाक्षिक श्रावक कहते है। जो निरतिचार श्रावक धर्मका पालन करता है उसे नैष्ठिक श्रावक कहते है । और जो देशचारित्रको पूर्ण करके अपनी मात्माकी साधनामें लीन हो जाता है, उसे साधक श्रावक कहते है। अर्थात् प्रारम्भिक दशाका नाम पाक्षिक है, मध्यदशाका नाम नैष्ठिक है और पूर्णदशाका नाम साधक है। इस तरह अवस्था भेदसे श्रावकके तीन भेद किये गये है। इनका विशेष परिचय नीचे दिया जाता है। पाक्षिक श्रावक पाक्षिक श्रावक पहले कहे गये आठ मूल गुणोका पालन करता है। 'उत्तरकालमें आठ मूल गुणोमें पाँच अणुव्रतोंके स्यानमे पाँच क्षीरिफलोको लिया गया है। जिस वृक्षमसे दूध निकलता है उसे क्षीरिवृक्ष व उदुम्बर कहते है। उदुम्बर फलोंमें जन्तु पाये जाते है। इसीसे अमर
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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