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________________ १७२ जैनधर्म ह्सा तो एक गृहस्यके लिये अपरिहार्य है, किन्तु गृहस्थको ऐसा air करना चाहिये जिसमें जीवधात कमसे कम हो, और उतना उद्योग करना चाहिये जितनेसे उसका निर्वाह बखूबी हो सकता हो, योंकि जो गृहस्थ थोड़े बारम्भ और थोड़ी परिग्रहमे सन्तुष्ट रहता . वही अहिंसा अणुव्रतको पाल सकता है। जिसे रातदिन धनको चिन्ता सताती रहती है, जो रात दिन नये नये कल कारखाने खोलकर निसंग्रह करनेमे तत्पर रहता है और अपने कर्मचारियों और नौकरोंको कमसे कम देकर उनसे अधिक से अधिक काम कराता है, न्याय और अन्यायका कतई विचार नही करता, वह क्या खाक अहिंसाको पाल कता है ? अहिंसा सन्तोषीके लिये है, असन्तोषी कभी अहिंसक हो नही सकता । गृहस्थका यह कर्तव्य बतलाया है कि वह अपने श्रितों और यथाशक्ति अनाश्रितोको भी पहले भोजन कराकर तब वयं भोजन करे। जो सन्तोषी होगा वही ऐसा कर सकता है । सन्तोषी तो पहले अपना पेट हो नही, किन्तु अपने भण्डारको भरनेकी चिन्ता करेगा, उसकी दृष्टिमे तो आश्रितोकी चिन्ता करना ही बेकार [ । वह समझता है कि मैने मोलभाव करके उन्हें रखा है, हर महीने उन्हे उसके अनुसार वेतन दे दिया जाता है । उतनमें उनका और उनके बच्चोंका पेट भरे या न भरे। इतनेमे यदि वे काम नही करना हते हों तो न करें हम दूसरे आदमी रख लेगे। वाजारमें आदमियोंकी कमी नही है । ऐसे विचारवाला मनुष्य कोरा व्यापारी है किन्तु अहिंसक व्यापारी नही है | अहिसक व्यापारी तो वह है जो अपनी ही तरह अपने आश्रितोंकी भी चिन्ता करता है और उनके ऊपर जोर जुल्म न करके उन्हें समयपर भरपेट भोजन देता है और उतना ही काम लेता जितना वे कर सकते हों। यह बात अपने आश्रित मनुष्यों और पगुनी दोनोंके सम्बन्धमे समानरूपसे लागू होती है । जैन शास्त्रकारोंने अहिंसा अणुव्रत पाँच दोष बतलाये है और उनसे बचते रहनेको ताकीद की । वे दोष इस प्रकार है १. बुरे इरादे से मनुष्य और पशुओंको रस्सी वगैरहसे वाँधना ।
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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