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________________ १६६ चाहिये। अतः यमका अनुयायी मान युद्ध नहीं कर मंत्रवल, तलवारका वल और धनवल है, तबतक वह उस आपत्तिको १ न तो देख ही सकता है और न सुन ही सकता है।' ____ जो कुछ धर्मपर आई हुई आपत्तिके प्रतीकारके बारेमे कहा गया ए है वही देशपर आई हुई आपत्तिके वारेमे भी समझना चाहिये । अतः। जो लोग ऐसा समझते हैं कि जैनधर्मका अनुयायी सेनामे भर्ती नहीं होसे सकता या युद्ध नहीं कर सकता, वे भ्रममे है। आजकल जैनधर्मको . माननेवाले अधिकांश वैश्य है। और सदियोंकी दासता और उत्पीडननेच उन्हें भी कायर और डरपोक वना दिया है। यह अहिंसाधर्मका दोष नही है। जवतक भारतपर अहिंसाधर्मी जैनोका राज्य रहा तवतक भारत गुलाम नहीं हो सका। वे मरना जानते थे और समयपर मारना भी जानते थे किन्तु रणसे विमुख होकर भागना नही जानते थे। प्राणोरे मोहसे कर्तव्यच्युत होना तो सबसे बड़ी हिंसा है। एक बार एक लेखकने गीतामे प्रतिपादित अर्जुन व्यामोहके सम्बन्वमें लिखा था--"अर्जुनका आदर्श अनार्योका-बौद्ध औरह नोका मार्ग है । वह आर्योका-हिन्दू जातिका आदर्श कदापि नही। है। हिन्दू-जाति ऐसे झूठे अहिंसाके आदर्शको नही मानती।" हम नही समझते लेखकने इस आदर्शको जैनोका आदर्श कैसे समझ लिया?, गीतासे स्पष्ट है कि अर्जुन हिंसाके भयसे युद्धसे विरत नही हो रहा 4 किन्तु अपने बन्यु वान्धवों और कुलका विनाश उसे कर्तव्यच्युत कर रहा था। अर्जुनके हृदयमें अहिंसाकी ज्योति नही झलकी थी, जिसमें प्रकाशमे मनुष्य प्राणिमात्रको अपना वन्धु और संसारको अपना कुछ मानता है, उसके हृदयमें तो कुटुम्ब मोहने अपना साम्राज्य जमा लिया था। अत वह अहिंसाका आदर्श नही था। अहिंसा कर्तव्यच्युत नहीं करती, किन्तु कर्तव्य और अकर्तव्यका बोध कराकर अकर्तव्यसे बचात है और कर्तव्यपर दृढ करती है। अत. अहिंसा न अव्यवहार्य है और न कायरता और निवलताकी जननी है। उसकी मर्यादा, व्यास्य और शक्तिसे जो परिचित है वह ऐसा कहनेका साहस नही कर सकता,
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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