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________________ जनधर्म और जिसकी शीतल सुखद छायामे यह सचराचर विश्व-युद्धोकी वभीषिकासे त्रस्त्र और आकुल यह संसार, शान्तिलाभ कर सकता है। अब रहा सम्यक्चारित्र या आचार। ३. चारित्र या आचार प्रारम्भमे जैनधर्मका आरम्भकाल बतलाते हुए यह बतलाया है के जैनशास्त्रोंके अनुसार वर्तमान अवसर्पिणीकालके प्रारम्भमे जब पहाँ भोगभूमि थी, उस समय यहाँ कोई भी धर्म नहीं था। सब मनुष्य सुखी थे। सवको आवश्यकताके अनुसार आवश्यक वस्तुएं मिल जाती थी। मनुष्य सतोषी और सरल होते थे। वैयक्तिक सम्पत्तिवादका तब जन्म नही हुआ था । अत विषमता भी नहीं थी। प्राकृतिक साम्यवाद था। न कोई छोटा था और न कोई बडा। न कोई अमीर था और न कोई गरीव । न कोई शासक था और न कोई शास्य । किन्तु पीछे प्रकृतिने पलटा खाया, आवश्यक वस्तुओका यथेष्ट परिमाणमें मिलना बन्द हो गया। मनुष्योंमें असन्तोष और घबराहट सैदा हुई । उनसे संचयवृत्तिका जन्म हुआ। फलत विषमता बढने लगी और उसके साथ साथ अपराधोंकी भी प्रवृत्ति हो चली। सुखका स्थान दुखने ले लिया। तब भगवान ऋषभदेवका जन्म हुआ। उन्होंने लोगोको असि, मषी, कृषि, शिल्प, सेवा और व्यापारके द्वारा आजीविका करनेका उपदेश दिया तथा अपने प्रत्येक कार्यमें अहिंसामूलक व्यवहार करनेका उपदेश देकर अहिंसाको ही धर्म बतलाया और उस महिंसा धर्मकी रक्षा लियो सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन चार अन्य धर्मोका पालन भी आवश्यक बतलाया। ये पांच यमरूप धर्म ही जैनाचारका मूल है इसीको एकदेशसे गृहस्थ पालते है और सर्वदेशसे मुनि पालते है। ' चारित्र या आचारका अर्थ होता है आचरण । मनुष्य जो कुछ सोचता है या बोलता है या करता है वह सब उसका आचरण कहलाता है। उस आचरणका सुधार ही मनुष्यका सुधार है और उसका बिगाड
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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