SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चारित्र १५३ अपने अपने किये हुए पुण्य पापका खेल है। आज जो अमीर है कल वह ? दरिद्र हो सकता है। आज जो नीरोग है कल वह रोगी हो सकता है। अत मनुष्यके वैभव और शरीरकी गन्दगीपर दृष्टि न देकर उसके गुणोपर दृष्टि देनी चाहिये । चौथे, उसे कुमार्गकी और कुमार्गपर। चलनेवालोंकी कभी भी सराहना नहीं करनी चाहिये, क्योकि इससे कुमार्गको प्रोत्साहन मिलता है। तथा उसमे इतना विवेक और दृढताका होना जरूरी है कि यदि कोई उसे सन्मार्गसे च्युत करनेका प्रयत्न करें तो उसकी बातोमे न आ सके। पाँचवे, उसे अपने में गुणोंको बढाते, रहनेका प्रयत्न करते रहना चाहिये और दूसरोके दोषोंको ढाँकनेका प्रयल करना चाहिये। तथा अज्ञानी और असमर्थ जनोके द्वारा यदि सन्मार्गपर कोई अपवाद आता हो तो उसे भी दूर करनेका प्रयत्न करना चाहिये, जिससे लोकमे सन्मार्गको निन्दा न हो। छठे, स्वय या कोई दूसरा मनुष्य सन्मार्गसे डिगता हुआ हो, किसी कारणसे उसका त्याग कर देना चाहता हो तो अपना और उसका स्थितिकरण करन: चाहिये। सातवें, अपने सहयोगियोंसे, और अहिंसामयी धर्मसे अत्यन्त स्नेह करना चाहिये। आठवे, जनतामे फैले हुए अज्ञानरूपी अन्धकारको दूर करके अहिंसामयी धर्मका सर्वत्र प्रसार करते रहना चाहिये। ये सम्यग्दर्शनके आठ अंग है, जिनका होना जरूरी है। ___ इसके सिवा सम्यग्दृष्टिको अपने ज्ञान, तप, आदर-सत्कार वल, ऐश्वर्य, कुल, जाति और सौन्दर्यका मद नही करना चाहिये। मद बहुत बुरा है। जो कोई मदमे आकर अपने किसी भी सहधर्मीका' अपमान करता है, वह अपने धर्मका ही अपमान करता है, क्योकि धार्मिकोके बिना धर्मकी स्थिति नहीं है। इस प्रकार सम्यदृष्टि तथा सम्यग्ज्ञानी होकर जीवको आगे बढने का प्रयत्न करना चाहिये । इतनी भूमिका तैयार किये विना अहिंसा धर्मरूपी उस महावृक्षका अकुरारोपण नही हो सकता, जिसके शान्तरससे परिपूर्ण सुस्वादु मधुरफल मुक्तिके मार्गमे पाथेयका काम देते है।
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy