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________________ चारित्र १५५ ही मनुष्यका बिगाड़ है। मनुष्य प्रवृत्तिशील है और उसकी प्रवृत्तिके तीन द्वार है-मन, वचन और काय । इनके द्वारा ही मनुष्य अपना काम करता ह और इनके द्वारा ही एक मनुष्य दूसरे मनुष्यके परिचयमें जाता है। यही वे चीजे है, जो मनुष्यको मनुष्यका दुश्मन बनाती है और यही वे चीजे है जो मनुष्यको मनुष्यका मित्र बनाती है। यही वे. चीज है जिनके सत्प्रयोगसे मनुष्य स्वय सुखी हो सकता है और दूसरोंको सुखी कर सकता है और यही वे चीजे है, जिनके दुष्प्रयोगसे मनुष्य स्वयं दुखी होता है और दूसरोके दुखका कारण बनता है। अत. इनका सत्प्रयोग करना और दुष्प्रयोग न करना शुभाचरण कहा जाता है। यथार्थमें चारित्रके दो अश है-एक प्रवृत्तिमूलक और दूसरा निवृत्तिमूलक । जितना प्रवृत्तिमूलक अश है वह सव वन्धका कारण है और जितना निवृत्तिमूलक अश है वह सव अवन्धका कारण है। यहाँ प्रवृत्ति और निवृत्तिके विषयमे थोडा सा प्रकाश डाल देन अनुचित न होगा। प्रवृत्तिका मतलब है इच्छा-पूर्वक किसी कार्य लगना और निवृत्तिका मतलब है प्रवृत्तिको रोकना । प्रवृत्ति अच्छी भी होती और बुरी भी भी। प्रवृत्तिके तीन द्वार है-मन, वचन और काय । किसीका बुरा विचारना, किसीसे ईर्षाभाव रखना आदि बुरी मानसिक प्रवृत्ति है। किसीका भला विचारना, किसीकी रक्षा । उपाय सोचना आदि अच्छी मानसिक प्रवृत्ति है। झूठ बोलना, गाली वकना आदि बुरी वाचनिक प्रवृत्ति है। हित मित वचन बोलना. अच्छी वाचनिक प्रवृत्ति है । किसीकी हिंसा करना, चोरी करना" व्यभिचार करना आदि बुरी कायिक प्रवृत्ति है और किसीकी ६१ करना, सेवा करना आदि अच्छी कायिक प्रवृत्ति है। इस तर प्रवृत्ति अच्छी भी होती है और वुरी भी होती है। किन्तु प्रवृत्तिक अच्छापन या वुरापन कर्ताकी क्रिया या उसके फलपर निर्भर नह है किन्तु कर्ताक इरादेपर निर्भर है। कर्ता जो कार्य अच्छे इरान करता है वह कार्य अच्छा कहलाता है और जो कार्य बुरे इरादेसे करत
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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