SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ “१५२ जैनधर्म वात सम्यग्दर्शनके विषयमे भी जानना चाहिये। इसीसे जैनसिद्धान्तमें सम्यग्दर्शनका बहुत महत्त्व वतलाया है। इसके हुए बिना न कोई (ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है और न कोई चारित्र सम्यक चरित्र कहलाता है, अत मोक्षके उपासककी दृष्टिका सम्यक् होना बहुत जरूरी है। उसक रहते हुए मुमुक्षु लक्ष्यभ्रष्ट नही हो सकता। । इस सम्यग्दर्शनके आठ अंग है। जैसे शरीरमें आठ अंग होते है, उनके विना शरीर नहीं बनता, वैसे ही इन आठ अगोके विना सम्यग्दर्शन भी नहीं बनता। सबसे प्रथम जिस सत्य मार्गका उसने अवलम्बन किया है उसके सम्बन्धमें उसे निशंक होना चाहिये । जवतक 'उसे यह शंका लगी हुई है कि यह मार्ग ठीक है या गलत, उसकी आस्था 'दृढ कैसे कही जा सकती है? ऐसी अवस्थामे आगे बढनेपर भी उसका लक्ष्यतक पहुंचना सम्भव नहीं है। अत. उसे अपनेपर अपने गन्तव्य 'पथपर और अपने मार्गद्रष्टापर अविचल विश्वास होना चाहिये । 'दूसरे, उसे किसी भी प्रकारके लौकिक सुखोकी इच्छा नहीं करना 'चाहिये--विलकुल निष्काम होकर काम करना चाहिये, क्योकि कामना और वह भी स्त्री, पुत्र, धन वगैरहकी, मनुष्यको लक्ष्यभ्रष्ट कर देती है । इच्छाका दास कभी आगे बढ ही नहीं सकता। जैसे कोई आदमी अपने देशको स्वतंत्र करनेके मार्गको अपनाता है और यह 'कामना रखकर अपनाता है कि इस मार्गको अपनानेसे मेरी ख्याति होगी, प्रतिष्ठा होगी, मुझे कौसिलमें मेम्बरी मिलेगी। यदि ये चीजें 'उसे मिल जाती है तो वह फिर इनको ही अपना लक्ष्य मानकर उनमें 'ही रम जाता है और देशकी स्वतत्रताको भल बैठता है। यदि ये चीजे नहीं मिलती और उल्टी यातना सहनी पड़ती है तो वह लोगोको भलाबुरा कहकर उस मार्गको ही छोड़ बैठता है। वैसे ही सांसारिक सुखको कामना रखकर इस मार्गपर चलना भी लक्ष्य भ्रष्ट कर देता है। अत निरीह होकर रहना ही ठीक है। तीसरे, रोगी, दुखी और दरिद्रीको देखकर उससे ग्लानि नहीं करनी चाहिये, क्योकि ये सब जीवोके
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy