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________________ चारित्र १५१ I भ्रममें भी पड सकता है । वैसे ही आत्मशोधकका भी अपनी आत्मा, उसकी खरानियां, उन खरावियोके कारण और उनसे छुटकारा पानेके उपायोंका भली भांति ज्ञान होनेके साथ ही साथ अपने उस ज्ञानकी सत्यतापर दृढ आस्था भी अवश्य होनी चाहिये । यह आस्या ही सम्यग्दर्शन है । छुटकारेका प्रयत्न करनेसे पहले इसका होना नितान्त आवश्यक है। जो कुछ सन्देह वगैरह हो उसे पहले ही दूर कर लेना चाहिये। जब वह दूर हो जाये और पहले कहे गये सा तत्त्वोकी दृढ प्रतीति हो जाये तब फिर मुक्तिके मार्गमे पैर बढान चाहिये और फिर उससे पीछे पैर नही हटाना चाहिये, जैसा कि कहा है "विपरीताभिनिवेश निरस्य सम्यग्व्यवस्य निजतत्त्वम् । यत्तस्मादविचलन स एव पुरुषार्थसिद्धयुपायोऽयम् ॥ १५ ॥ " पुरुषार्थ० । 'शरीरको ही आत्मा मान लेनेका जो मिथ्याभाव हो रहा है, उसे दूर करके आत्मतत्त्वको अच्छी तरह जानकर उससे विचलित न होना ही परमपुरुषार्थ मुक्तिकी प्राप्तिका उपाय है।' ६ 1 अत. मुक्ति के लिये उक्त सात तत्त्वोपर दृढ आस्थाका होना सम्यग्दर्शन है और उनका ठीक ठीक ज्ञान होना ही सम्यग्ज्ञान है । ये दोनो ही आगे बढनेकी भूमिका है, इनके बिना मुक्तिके लिये यत्नकरना व्यर्थ है । जिस जीवको इस प्रकारका दृढ श्रद्धान और ज्ञान हो। जाता है उसे सम्यग्दृष्टि कहते है अर्थात् उसकी दृष्टि ठीक मानी जाती । है । अब यदि वह आगे वढेगा तो धोखा नही खा सकेगा । जबतक मनुष्यकी दृष्टि ठीक नही होती - उसे अपने हिताहितका ज्ञान नही, होता तबतक वह अपने हितकर मार्गपर आगे नही बढ सकता । अत: प्रारम्भमे ही उसकी दृष्टिका ठीक होना आवश्यक है । इसीलिये सम्यग्दर्शनको मोक्षके मार्गमे कर्णधार बतलाया है। जैसे नावको ठीक दिशामे ले जाना खेनेवालोके हाथमें नही होता, किन्तु नावके पीछे लगे हुए डाँडका सञ्चालन करनेवाले मनुष्यके हाथमे होता है । वह उसे जिघरको घुमाता है उघरको ही नावकी गति हो जाती है। यही
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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