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________________ जैनधर्म "सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेसरा विदु। यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धति ॥३॥" रलकरंड। अर्थात्--'धर्मके प्रवर्तक सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक् चारित्रको धर्म कहते है। जिनके उल्टे मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचरित्र संसारके मार्ग है।' इन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकोही, जोकि धर्मक नामसे कहे गये है, प्रसिद्ध सूत्रकार उमास्वामीने मुक्तिका मार्ग क्तलाया है। असलमें जो मुक्तिका मार्ग है-दुःखों और उनके कारणोसे छूटनेका उपाय है, वही तो धर्म है। उसीको हमे समझना है।। दु.खोंसे स्थायी छुटकारा पानेके लिये सबसे प्रथम हमें यह दृढ श्रद्धान होना जरूरी है कि__"एगो में सस्सदो अप्पा णाणदंसणलक्सणो। खेसा मे वाहिरा भावा सवे संजोगलक्खणा ।।१०२॥' नियमसार। 'जानदर्शनमय एक अविनाशी आत्मा ही मेरा है । शुभाशुभ कर्मोके सयोगसे उत्पन्न हुए वाकीके सभी पदार्थ वाह्य है-मुझसे भिन्न है मेरे नहीं है।' जब तक हम उन वस्तुओसे, जो हमे हमारे शुभाशुभ कर्मोंक फलस्वरूप प्राप्त होती है, ममत्व नही त्यागेगे, तबतक हम अपने छुटकारेका प्रयत्ल नहीं कर सकेगे । और करेगे भी तो वह हमारा प्रयल सफल नहीं होगा, क्योकि जवतक हमे यही मालूम नहीं है कि हम क्या है और जिनके बीचमे हम रहते है उनके साथ हमारा क्या सम्बन्ध है तबतक हम किससे कित्तका छुटकारा करा सकेंगे? जैसे, जिसे सोनेकी और उसमें मिले हुए खोटकी पहचान नही है कि यह सोना है और यह मैल है, वह खानसे निकले हुए पिण्डमेंसे सोनेको शोधकर नहीं निकाल सकता । सोनेको गोधकर निकालनके लिये उसे सोने और मलका ज्ञान तथा यही सोना है और यही मल है ऐसा दृढ विश्वास होना चाहिये, क्योंकि दृढ विश्वास न होनेपर वह किसी दूसरेके वहकावमे आकर मलको सोना और सोनेको मल समझकर
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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