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________________ 1 सिद्धान्त १३३ 0 स्थायी मानते हैं, वहाँ जैनदर्शनका कहना है कि राग द्वेषसे युक्त जीवकी प्रत्येक मानसिक, वाचनिक और कायिक क्रियाके साथ एकी द्रव्य जीवमें आता है जो उसके रागद्वेषरूप भावोका निमित्त पाकर जीवसे बँध जाता है, और आगे जाकर अच्छा या बुरा फल देता है इसका खुलासा यह है कि पुद्गलद्रव्य २३ तरहकी वर्गणाओमे बंटास हुआ है। उन वर्गणाओमेसे एक कार्मणवर्गणा भी है, जो सब संसारमे व्याप्त है । जीवके कार्योंके निमित्तसे यह कार्मणवर्गणा ही कर्मरूप हो जाती है, जैसा कि आचार्य कुन्दकुन्दने लिखा है 'परिणमदि जदा अप्पा सुहम्मि असुहम्मि रागदोसजुदो । त पविसदि कम्मरय णाणावरणादिभावेहि ॥ ६५॥ ' -- प्रवच० ' जब राग द्वेषसे युक्त आत्मा अच्छे या बुरे कामोंमें लगता तब कर्मरूपी रज ज्ञानावरण आदि रूपसे उसमे प्रवेग करता है ।' 7 the 1 1 इस प्रकार कर्म एक मूर्त पदार्थ है जो जीवके साथ बंध जाता है। जीव अमूर्तिक है और कर्म मूर्तिक । अत उन दोनोका वह सम्भव नही है, क्योकि मूर्तिकके साथ मूर्तिकका वन्य हो सकता है ! किन्तु अमूर्तिकके साथ मूर्तिकका बन्ध कैसे हो सकता है ? ऐसी आशंका की जा सकती है, उसका समाधान इस प्रकार है- अन्य दर्शनोकी तरह, जैनदर्शन भी जीव और कर्मके सम्वन्धको अनादि मानता है। किसी समय जीव सर्वथा गुद्ध था, बादको उसके साथ कर्मोंका सम्ब हुआ, ऐसी मान्यता नही है, क्योंकि ऐसा माननेमे अनेक विवाद उठ खड़े होते हैं । सबसे पहला विवाद तो यह है कि सर्वथा शुद्ध जीवके, कर्मबन्ध हुआ तो कैसे हुआ ? और यदि सर्वथा शुद्ध जीव भी कम वन्धनमे पड़ सकता है तो उससे छुटकारा पानेका प्रयत्न करना ही, व्यर्थ हो जाता है । मत. जीव और कर्मका सम्वन्व अनादि है । जैसा, कि पञ्चास्तिकाय नामक ग्रन्थमें आचार्य कुन्दकुन्दने कहा है V1 'जो खलु संसारत्यो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो । परिणामादो कम्म कम्मादो होदि गदिसु गदि ॥ १२८|| गदिमधिगदस्स देहो देहादो इदियाणि जायते ।
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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