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________________ ११११३२ जैनधर्म अत. जो जीव अपने उस चरम लक्ष्यको प्राप्त करना चाहता है उसे उक्त सात तत्त्वोंका ज्ञान होना आवश्यक है । १० कर्म सिद्धान्त कर्मका स्वरूप प्राणी जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल भोगना पड़ता है। मोटे तोरसे यही कर्मसिद्धान्तका अभिप्राय है । इस सिद्धान्तको जैन, सांख्य, योग, नैयायिक, वैशेषिक, मीमासक आदि आत्मवादी दर्शन तो मानते ही है, किन्तु अनात्मवादी बौद्ध दर्शन भी मानता है। इसी रह ईश्वरवादी और अनीश्वरवादी भी इसमें प्राय. एकमत है । केन्तु इस सिद्धान्तमें ऐकमत्य होते हुए भी कर्मके स्वरूप और उसके फल देनेके सम्बन्धमें दोनोमें मौलिक मतभेद है । साधारण रसे जो कुछ किया जाता है उसे कर्म कहते है । जैसे - खाना, पीना, वलना, फिरना, हँसना, बोलना, सोचना वगैरह । परलोकको माननेवाले दार्शनिकोंका मत है कि हमारा प्रत्येक अच्छा या बुरा कर्म अपना संस्कार छोड़ जाता है, क्योकि हमारे प्रत्येक कर्म या प्रवृत्तिके मूलमे राग और द्वेष रहते है । यद्यपि प्रवृत्ति या कर्म क्षणिक होता है तथापि उसका संस्कार फलकाल तक स्यायी रहता है । संस्कारसे प्रवृत्ति और प्रवृत्तिसे संस्कारकी परम्परा अनादिकालते चली आती है । इसीका नाम संसार है। यह संस्कार ही धर्म, अधर्म, कर्माशय आदि नामों से पुकारा जाता है। किन्तु जैनदर्शनके मतानुसार कर्मका स्वरूप किसी अंशमें इससे भिन्न है । जैनदर्शन में कर्म केवल एक संस्कारमात्र ही नही है किन्तु एक वस्तुभूत पदार्थ है जो रागी द्वेषी जीवको क्रियासे आकृष्ट होकर जीवके साथ मिल जाता है । यद्यपि वह पदार्थ भौतिक है तथापि जीवके कर्म अर्थात् किनके द्वारा आकृष्ट होकर वह जीवसे बंधता है इसलिये उसे कर्म कहते है । आशय यह है कि जहाँ अन्य धर्मं राग और द्वेषसे युक्त जीवको प्रत्येक क्रियाको कर्म कहते है और उस कर्मके क्षणिक होनेपर भी उसके संस्कारको I
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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