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________________ जैनधर्म तेहि दु विसयगहण तत्तो रागो व दोसो वा॥१२॥ जायदि जीवस्सेवं भावो ससारचक्कवालम्मि । इदि जिणवरेहि मणिदो अणादिणिधणो सणिघणो वा ॥१३०॥ अर्थ-जो जीव ससारमें स्थित है अर्थात् जन्म और मरणके क्रम पड़ा हुआ है, उसके रागरूप और द्वेषरूप परिणाम होते है। न परिणामोंसे नये कर्म बंधते है। कर्मोसे गतियोमे जन्म लेना पडता , । जन्म लेनेसे शरीर मिलता है । गरीरमे इन्द्रियाँ होती है । न्द्रियोसे विषयोको ग्रहण करता है। विषयोंको ग्रहण करनेसे इष्ट उपयोंसे राग और अनिष्ट विषयोसे द्वेष करता है। इस प्रकार ससारपी चक्रमें पड़े हुए जीवके भावोसे कर्मवन्ध और कर्मवन्धसे राग-द्वेप प भाव होते रहते है। यह चक्र 'अभव्यजीवकी अपेक्षासे अनादि नन्त है और भन्यजीवकी अपेक्षासे अनादि सान्त है। इससे स्पष्ट है कि संसारी जीव अनादिकालसे मतिक कोसे घा हुआ है और इसलिये एक तरहसे वह भी मूर्तिक हो रहा है, जैसा क कहा है 'वण्ण रस पच गंधा दो फासा अट्ठ णिच्चया जीवे। णो सति अमुत्ति तदो ववहारा मुत्ति वधादो॥ ॥ द्रव्यस० । अर्थात्-वास्तवमें जीवमें पांचो रूप, पांचो रस, दोनों गन्ध और आठों स्पर्श नही रहते इसलिये वह अमूर्तिक है, क्योकि जैनदर्शनमे प, रस, गन्ध और स्पर्शगुणवाली वस्तुको ही मूर्तिक कहा है। किन्तु मवन्वके कारण व्यवहारमें जीव मूर्तिक है। अत कथञ्चित् मूर्तिक मात्माके साथ मूर्तिक कर्मद्रव्यका सम्बन्ध होता है। सारांश यह है कि कर्मके दो भेद है-द्रव्यकर्म और भावकर्म । विसे सम्बद्ध कर्मपुद्गलोको द्रव्यकर्म कहते है और द्रव्यकर्मके प्रभावसे सोनेवाले जीवके राग-द्वेपरूप भावोको भावकर्म कहते है । द्रव्यकर्म सावकर्मका कारण है और भावकर्म द्रव्यकर्मका कारण है । न विना १ जो जीव इम चत्रका अन्त नहीं कर सकते उन्हें अभव्य कहते है और जो मफा यत कर सकते हैं उन्हें भव्य कहते है।
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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