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________________ सिद्धान्त १ है । इसी तरह जीव और कर्मका परस्परमे सम्बन्ध हो जानेपर न जीव ही अपनी असली हालतमे रहता है और न कर्म पुद्गल ही अपनी असली हालतमे रहते है। दोनों दोनोसे प्रभावित होते है । यही बन्ध है । इसका विशेष विवेचन आगे कर्मसिद्धान्तमे किया गया है । आस्रव और बन्ध ये दोनों ससारके कारण है । १३१ पाँचवा तत्त्व संवर है । आस्रवके रोकनेको संवर कहते है अर्थात् नये कर्मोंका जीवमे न आना ही सवर है । यदि नये कर्मोके आगमनको न रोका जाये तो जीवको कभी भी कर्मबन्धनसे छुटकारा नही मिल सकता । अत सवर पाँचवा तत्त्व है । छठा तत्त्व निर्जरा है । बँधे हुए कर्मोके थोडा थोडा करके जीवसे अलग होनेको निर्जरा कहते है । यद्यपि जैसे जीवमे प्रतिसमय नये कर्मोंका आस्रव और वन्व होता है वैसे ही प्रतिसमय पहले बँधे हुए कर्मोकी निर्जरा भी होती रहती है, क्योकि जो कर्म अपना फल दे चुकते है वे झडते जाते है । किन्तु उस निर्जरासे कर्मबन्धनसे छुटकारा नही मिलता, क्योकि प्रतिसमय' नये कर्मो का वध होता ही रहता है, अत सवरपूर्वक जो निर्जरा होती' है, अर्थात् एक ओर तो नये कर्मोके आगमनको रोक दिया जाता है और दूसरी ओर पहले बँधे हुए कर्मो को जीवसे धीरेधीरे जुदा कर दिया जाता है तभी मोक्षकी प्राप्ति होती है जो कि सातवाँ तत्त्व है । समस्त ' कर्मबन्धनों से जीवके छूट जानेको मोक्ष कहते है । मोक्ष या मुक्ति | शब्दका अर्थ ही छुटकारा है । जब जीव सब कर्मवन्धनोंसे छूट जाता है तो उसे मुक्तजीव कहते है । इस प्रकार उक्त सात तत्त्वोंमेसे जीव और अजीव दो मूल तत्त्व है, उनके मेलसे ही संसारकी सृष्टि होती है । संसारके मूल कारण आसव और बन्ध है और संसारसे मुक्त होनेके कारण संवर मोर निर्जरा है । संवर और निर्जराके द्वारा जीवको जो पद प्राप्त होता है वह मोक्ष है, जो कि प्रत्येक जीवका चरम लक्ष्य है । उसीकी प्राप्तिके लिये उसका प्रयत्न चाल रहता है, जिसे हम धर्मके नामसे पुकारते है ।
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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