SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जनवर्म र उक्त सात तत्त्वोंका नाम है--जीव, अजीव, आसव, वन्य, वर, निर्जरा और मोक्ष । इनमेसे जीव और अजीब दो मूलभूत तत्त्व हैं, जिनसे यह विश्व निर्मित है । इन दोनों तत्त्वोका वर्णन पहले कर आये है। तीसरा तत्व आत्रव है, जो जीवमें कर्ममलके मानेको सूचित करता है। वास्तवमें जीव और कर्मोका बन्ध तभी सम्भव है जब जीवमें कर्म-पुद्गलोंका आगमन हो। मत. कर्मोके मानके द्वारको आनव कहते है। वह द्वार, जिसके द्वारा जीवमें सर्वदा कर्मपुद्गलोंका आगमन होता है जीवकी ही एक शक्ति है, जिसे योग कहते है। वह शक्ति गरीरधारी जीवोंकी मानसिक, वाचनिक और कायिक क्रियामोंका सहारा पाकर जीवकी ओर कर्मपुद्गलोको साकृष्ट करती है। अर्थात् हम मनके द्वारा जो कुछ सोचते है, वचनके द्वारा जो कुछ बोलते हैं और शरीरके द्वारा जो कुछ हलनचलन करते हैं वह सब हमारी ओर कर्मोके मानेमे कारण होता है। इसीलिये तत्त्वार्थ-) सूत्र में कहा है कि मन, वचन और कायकी क्रियाको योग कहते है और - वह योग ही आस्रवका कारण होनेसे यात्रव कहा जाता है। अत. आनव तत्त्व यह वतलाता है कि जीवमें कर्मपुद्गलोंका आगमन किस प्रकारसे होता है ? चौथा वन्ध तत्त्व है। जीव और कर्मके परस्परमे मिल जानेको वन्ध कहते है। यह वन्य यद्यपि संयोगपूर्वक होता है किन्तु संयोगले एक जुदी वस्तु है। संयोग तो मेज और उसपर रक्खी हुई पुस्तकमा भी है, किन्तु उसे वन्य नहीं कह सकते। वन्य तो एक ऐसा मिश्रण (मिलाव) है जिसमें रासायनिक (Chernical) परिवर्तन होता है। उत्तमें मिलनेवाली दो वस्तुएं अपनी बसली हालतको छोड़कर एक तीसरी हालतमें हो जाती है। जैसे दूध और पानीको आपसमें मिला दिये जानेपर न दूव अपनी असली हालतमें रहता है और न पानी अपनी असली हालतमें रहता है, किन्तु दूध पनीलापन आ जाता है और पानी दूधका ना हो जाता है। दोनों दोनोंपर प्रभाव डालते
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy