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________________ ११०६ जैनधर्म वर्षाको इस वातका ज्ञान नहीं है कि उसके कारण कोई खेती हरी होगी या सूखेगी और ससारके जीवोका लाभ होगा या हानि। इसीसे ऐसी गडबडी हो जाती है कि जहाँ आवश्यकता होती है वहाँ एक वूद भी पानी नहीं पड़ता और जहां आवश्यकता नही होती वहां खूब वर्षा हो जाती है। किसी प्रवन्वकर्ताक न होनेके कारण ही मनुष्यने नहर निकालकर और कुएं आदि खोदकर यह प्रवन्ध किया है कि यदि वर्षा न हो तो भी अपने खेतोंको पानी देकर वह अनाज पैदा कर सके। इसके सिवाय जव प्रत्येक धर्मके अनुसार ससारमे इस समय पापोंकी ही अधिकता हो रही है और नित्य ही भारी भारी अन्याय देखनेमे आते है तब यह कैसे माना जा सकता है कि जगतका कोई 'प्रवन्धकर्ता भी है, जिसकी आज्ञाको न मानकर ही ये सब अपराध और पाप हो रहे है। शायद कहा जाये कि राजाकी भी तो आज्ञा भंग होती रहती है। किन्तु राजा न तो सर्वज्ञ ही होता है और न सर्वशक्तिमान् । इसलिये न तो उसे सब अपराध करनेवालोका ही पता रहता है और न वह सब प्रकारके अपराधोको दूर ही कर सकता है। परन्तु जो सर्वज और सर्वशक्तिमान हो और एक छोटेसे परमाणुसे लेकर आकाश तककी गति और स्थितिका कारण हो, जिसकी इच्छाके विना एक पत्ता तक भी नहीं हिल सकता हो, उसके सम्वन्धमे यह वात कभी भी नही कही जा सकती। एक ओर तो उसे संसारके एक एक कणका प्रवन्धकर्ता बताना और दूसरी ओर अपराधोंके रोकने में उसे असमर्थ ठहराना, यह तो उस प्रबन्धकर्ताका परिहास है। 1 तथा यदि कोई इस ससारका प्रबन्धक होता तो वह यह अवश्य वितलाता कि इस समय हमें जो सुख या दुख मिल रहा है वह हमारे कौनसे कृत्योंका फल है जिससे हम आगामीको बुरे कृत्योंसे बचत और अच्छे कामोंकी ओर लगते। परन्तु हमे तो यह भी मालूम नहीं कि पुण्य क्या है और पाप क्या है? एक ही कृत्यको कोई पाप कहता है और कोई पुण्य । यही वजह है कि संसारमें सैकड़ों प्रकारके मत फलं
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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