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________________ १०७ सिद्धान्त हुए हैं और तमाशा यह है कि सब ही अपने अपने मतको उसी सर्व शक्तिमान् परमात्माका बतलाया हुआ कहते है। जहाँ तक हम समझते है ऐसा अन्धेरतो मामूली राजाओंके राज्यमे भी नहीं होता। प्रत्येक राजाके राज्यमे जो कानून प्रचलित होता है, यदि कोई मनुष्य' उसके विपरीत नियम चलाना चाहता है या उसके विरुद्ध प्रचार करता है तो वह दण्ड पाता है। किन्तु सर्वशक्तिमान् परमात्माके राज्यमे सैकड़ो ही मतोके प्रचारक अपने अपने धर्मका उपदेश करते हैअपने अपने सिद्धान्तोंको उसी एक परमेश्वरकी आज्ञा बताकर उसके ही अनुसार चलनेकी घोषणा करते है। और यह सब कुछ होते हुए भी ससारके प्रबन्धकर्ता उस सर्वशक्तिमान् परमेश्वरकी ओरसे कुछ भी रोकटोक इस विषयमे नहीं होती। ऐसी स्थितिमे तो कभी भी यह नही माना जा सकता कि कोई सर्वशक्तिमान् परमेश्वर इस संसारका प्रबन्ध करता है। बल्कि यही माननेके लिये विवश होना पड़ता है कि वस्तु स्वभावपर ही संसारका सारा ढांचा बंधा हुआ है और उसी. के अनुसार जगतका सब प्रवन्ध चला आता है। यही कारण है कि यदि कोई मनुष्य वस्तु स्वभावके विपरीत आचरण करता है तो ये सब वस्तुएँ उसको मना करने या रोकने नहीं जाती। और न अपने स्वभावके अनुसार कभी अपना फल देनेसे ही चूकती है। जैसे, आगमे चाहे तो कोई वालक नादानीसे अपना हाथ डाल दे या किसी बुद्धिमान पुरुषका हाथ भूलसे पड़ जावे, वह आग अपना काम अवश्य करेगी। मनुष्यके शरीरमे सैकड़ों बीमारियां ऐसी होती है जो उसके अज्ञात दोषोंका ही फल होती है। परन्तु प्रकृति या वस्तु स्वभाव उसे यह नहीं बताते कि तेरे अमुक दोषके कारण तुझको यह बीमारी हुई है। इसी तरह हमारे दोषोंका फल भी हमे वस्तु स्वभावके अनुसार स्वयं मिल जाता है। इस प्रकार वस्तु स्वभावके अनुसार तो यह वात ठीक बैठ जाती है कि सुख दुख भोगते समय क्यो हमको हमारे उन कृत्योंकी खबर
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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