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________________ सिद्धान्त १०५ उसका ही वादल बनता है तब यदि वस्तु स्वभावके सिवाय कोई दूसरा ही वर्षाका प्रबन्ध करनेवाला होता तो वह कभी भी उस समुद्रपर। पानी न बरसाता जिसके पानीको भापसे ही वह बादल बना था। परन्तु देखनेमे तो यही आता है कि बादलको जहाँ भी इतनी ठंड .. जाती है कि भापका पानी बन जावे वही वह बरस पड़ता है। यही कारण है कि वह समुद्रपर भी बरसता है और धरतीपर भी। बादलको तो इस बातका ज्ञान ही नहीं कि उसे कहाँ वरसना चाहिये और कहाँ नही। इसीसे कभी वर्षा समयपर होती है और कभी कुसमयमे । बल्किर कभी कभी तो ऐसा होता है कि सारी फसल भर अच्छी वर्षा होकर अन्तमे एक आध वर्षाकी ऐसी कमी हो जाती है कि सारी करी कराई खेती मारी जाती है। यदि वस्तु स्वभावके सिवाय कोई दूसरा प्रबन्ध । कर्ता होता तो ऐसी अन्धाधुन्धी कभी भी न होती। इसपर शायद यह , कहा जाये कि उसकी तो इच्छा ही यह थी कि इस खेतमे अनाज पैदाः न हो या कम पैदा हो। परन्तु यदि यही बात होती तो वह सारी फसल भर अच्छी वर्षा करके उस खेतीको इतनी बड़ी ही क्यो होने देता।। बल्कि वह तो उस किसानको बीज ही न वोने देता । यदि किसानपर उसका काबू नही चल सकता था तो खेतमे पड़े वीजको ही वह न उगने देता। यदि वीजपर भी उसका काबू न था तो बारिशकी एक बूद, भी उस खेतमें न पड़ने देता। तया यदि संसारके उस प्रवन्धकर्ताकी यही इच्छा होती कि इस वर्ष अनाज ही पैदा न हो या कमती पैदा हो तो वह उन खेतोको ही न सुखाता जो बारिशके ही ऊपर निर्भर है वल्कि उन खेतोंको भी जरूर सुखाता जिनमें नहरसे पानी आता है। परन्तु देखनेमे यही आता है कि जिस वर्ष वर्षा नही होती उस वर्ष, उन खेतो, तो कुछ भी पैदा नहीं होता जो वर्षापर निर्भर है, और नहरसे पानी आनेवाले खेतोंमें उसी वर्ष सव कुछ पैदा हो जाता है। इससे सिद्ध है कि ससारका कोई एक प्रवन्वकर्ता नहीं है बल्कि वस्तुस्वभावके कारण ही जव वर्षा निमित्त कारण जुट जाते है तब पानी वरस जाता है और जब वे कारण नही जुटते तब पानी नही वरसता ।।
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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