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________________ जैनधर्म अनादि होना जरूरी है। साथ ही वस्तुओके गुण स्वभाव और एक इसरेपर असर डालने तथा एक दूसरेके असरको ग्रहण करनेकी प्रकृति भी अनादि कालसे ही चली आती है, तब जगतके प्रबन्धका सारा ढांचा ही मनुष्यकी आंखोके सामने हो जाता है। उसे स्पष्ट प्रतीत होने लगता है कि संसारमें जो कुछ हो रहा है वह सब वस्तुओंके गुण और स्वभावके ही कारण हो रहा है । इसके सिवा न तो कोई ईश्वरीय शक्ति ही इसमें कोई कार्य कर रही है और न उसकी कोई जरूरत ही है। जैसे, जव समुद्र के पानीपर सूरजकी धूप पड़ती है तो उस धूपमें जितना ताप होता है उसीके अनुसार समुद्रका पानी भापरूप बन जाता है । और जिघरकी वा होती है उवरको ही भाप बनकर चला जाता है। फिर जहाँ कही मी उसे इतनी ठंड मिल जाती है कि वह पानीका पानी हो जावे वही शानी हो कर बरसने लगता है। फिर वह बरसा हुआ पानी स्वभावसे ही ढालकी ओर बहता हुआ बहुत-सी चीजोंको अपने साथ लेता हुआ बला जाता है। और बहता-वहता नदियोंके द्वारा समुद्रमे ही जा नहुंचता है। । धूप, हवा, पानी और मिट्टी आदिके इन उपर्युक्त स्वभावोस दुनियामें लाखों करोडों परिवर्तन हो जाते है, जिनसे फिर लाखों करोडो काम होने लग जाते है। अन्य भी जिन परिवर्तनोंपर दष्टि डालते ई उनमें भी वस्तु स्वभावको ही कारण पाते है । जव संसारकी सारी अस्तुएं और उनके गुण स्वभाव सदासे है और जब संसारकी सारी तस्तुएं दूसरी वस्तुओंसे प्रभावित होती है और दूसरी वस्तुओपर सपना प्रभाव डालती है तब तो यह बात जरूरी है कि उनमें सदासे दी आदान-प्रदान होता रहता है और उसके कारण नाना परिवर्तन होते रहते है। यही संसारका चक्र है जो वस्तुस्वभावके द्वारा अपने लाप ही चल रहा है। किन्तु अविचारी मनुष्य उससे, चकित होफर श्रममें पड़े हुए है। । विचारनेकी वात है कि जब समुद्रके पानीकी ही भाप वनकर
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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