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________________ सिद्धान्त १०३ १ 1 यह उसका स्वभाव अनादिसे ही है और अनन्त कालतक रहेगा । इसी प्रकार अन्य वस्तुओके सम्बन्ध मे भी समझ लेना चाहिये । यदि वस्तुओं के गुण और स्वभाव सदा बदलते रहते तो मनुष्यको किसी वस्तुको छने या उसके पास जाने तकका साहस भी न होता । उसे सदा भय रहता कि न जाने आज इसका क्या स्वभाव हो गया है परन्तु उनके गुण और स्वभाव के विषयमे वह सदा निर्भय रहता है क्योकि वह उनके स्वभावके विषयमे अपने और अपनेसे पूर्ववर्त सज्जनो के अनुभवपर पूरा भरोसा करता है । अत यह सिद्ध होता ह कि वस्तुओकी ही तरह उनके गुण और स्वभाव भी अनादि अनन्त है । ie इसी प्रकार ससारकी वस्तुओकी जाँच करनेपर यह भी मालूमर होता है कि दो या तीन वस्तुओको मिलानेसे जो वस्तुएँ आज बन सकती है ' है वे पहले भी बन सकती थी। जैसे नीला और पीला रंग मिलानेसे आज हरा रंग बन जाता है, यह रंग पहले भी बन सकता था और आगेह भी बनता रहेगा। ऐसे ही किसी एक वस्तुके प्रभावसे जो परिवर्तन दूसरी वस्तु हो जाता है वह पहले भी होता था या हो सकता था और आगे भी होता रहेगा । जैसे, आगकी गर्मी से जो भाप माज बनती है वही पहले भी बनती थी और आगेको भी बनती रहेगी । जलानसे ज आज लकड़ी, आग, कोयला राखरूप हो जाती है वैसे ही वे पहले भी होती थी और आगे भी होगी। सारांश यह है कि अन्य वस्तुसोस प्रभा वित होने तथा अन्य वस्तुमोको प्रभावित करनेके गुण और स्वभावत भी वस्तुओं अनादि है । इस प्रकार विचार करनेपर जब यह बात सिद्ध हो जाती है कि वृक्षर बीज और बीजसे वृक्षकी उत्पत्तिके समान या मुर्गीसे अण्डा और अण्डे मुर्गी की उत्पत्तिके समान संसारके सभी मनुष्य, पशु, पक्षी और वनस्पति सन्तान दरसन्तान अनादि कालसे चले आते है । किसी समयमें इनक आदि नही हो सकता और इन सबके अनादि होनेसे इस पृथ्वीका भी
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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