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________________ जनधर्म होती रहती है। नही होती और नादास चली आती डकर दूसरे प्रकारके आभूषण बनाये जाते है। सोना उनमें भी हता है। इसी प्रकार मिट्टी, जल, वायु और धूपका संयोग पाकर जि ही वृक्षरूप परिणत होता है। वृक्षको जला देनेपर उसके कोयले जाते है और कोयले जलकर राख हो जाते है। इससे यही सिद्ध ता है कि वस्तुसे ही वस्तुकी उत्पत्ति होती है। तथा जगतमें एक ही परमाणु न तो कम होता है और न बढ़ता है। सदा जितनेके तितने रहते हैं। हां, उनकी अवस्थाएँ वदल-बदलकर नई नई वस्तुमोकी ष्टि होती रहती है। अत यह बात सिद्ध होती है कि संसारमे कोई स्तु अस्तिसे नास्तिरूप नहीं होती और नास्तिसे अस्तिरूप नहीं होती। कन्तु हरेक वस्तु किसी न किसी रूपमें सदासे चली आती है और आगे भी किसी न किसी रूपमें सदा विद्यमान रहेगी। अर्थात् संसारकी तीव व अजीवरूप सभी वस्तुएँ अनादि अनन्त है और उनके अनेक वीनरूप होते रहनेसे ही यह संसार चल रहा है। } इस प्रकार जीव व अजीवरूप तभी वस्तुलोकी नित्यता सिद्ध हो नेपर अव केवल एक बात निर्णय करनेके योग्य रह जाती है कि सारके ये सव पदार्थ किस तरहसे नवीन-नवीन रूप धारण करते । इस वातका निर्णय करनेके लिये जव हम संसारकी ओर दृष्टि हालते है तो हमे मालूम होता है कि मनुष्य मनुष्यसे ही पैदा होता है। सी तरह पशु-पक्षी भी अपने माँ वापसे ही पैदा होते देखे जाते है। बना मां-बापके उनकी उत्पत्ति नही देखी जाती। गेहूँ, चना आदि अनाज स्था आम, अमरूद आदि वनस्पतियां भी अपने अपने वीज,जड़ या शाखा गैरहसे ही उत्पन्न होती हुई देखी जाती है। और जैसे ये आज उत्पन्न होती हुई देखी जाती है वैसे ही पहले भी उत्पन्न होती होंगी। इस रह इन सब वस्तुओंकी उत्पत्ति अनादि माननेपर इस धरतीको भी हनादि मानना ही पड़ता है। । जिस प्रकार वस्तुएं अनादि अनन्त है उसी प्रकार उनके गुण और वभाव भी अनादि अनन्त है। जैसे, अनिका स्वभाव उष्ण है ।
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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