SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिद्धान्त ६ द्रव्य पाये जाते हैं उतने आकाशको लोकाकाश कहते है और उससे अतिरिक्त जो शुद्ध अकेला माकाश है उसे अलोकाकाश कहते है। ___ यहा यह बतला देना अनुचित न होगा कि जब जैनधर्म लोकाकाशको सान्त मानता है और उसके नागे अनन्त आकाश मानता है, तब प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइस्टीन समस्तलोकको सान्त मानते है किन्तु उसके आगे कुछ नहीं मानते, क्योकि प्रो० एडिंगटनका कहना है कि पदार्थविज्ञानका विद्यार्थी कभी भी आकाशको शून्यवत् नही मान सकता। ५ कालद्रव्य जो वस्तुमानके परिवर्तन करानमे सहायक है उसे कालद्रव्य कहते है । यद्यपि परिणमन करनेकी शक्ति सभी पदार्थोमें है, किन्तु वाहय निमित्तके विना उस शक्तिकी व्यक्ति नही हो सकती। जैसे कुम्हारके चाकमें घूमनेकी शक्ति मौजूद है, किन्तु कीलका साहाय्य पाये विना वह धूम नही सकता, वैसे ही ससारके पदार्थ भी कालद्रव्यका साहाय्य पाये विना परिवर्तन नहीं कर सकते । अत. कालद्रव्य उनके परिवर्तनमें सहायक है। किन्तु वह भी वस्तुओंका वलात् परिणमन नही कराता है और न एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यरूप परिणमन कराता है, किन्तु स्वयं परिणमन करते हुए द्रव्योंका सहायकमात्र हो जाता है। , काल दो प्रकारका है-एक निश्चयकाल और दूसरा व्यवहारकाल । लोकाकाशके प्रत्येक प्रदेशपर जुदे-जुदे कालाणु-कालके अणु स्थित हैं, उन कालाणुगोंको निश्चयकाल कहते है। अर्थात् कालद्रव्य नामकी वस्तु वे कालाणु ही है। उन कालाणुओंके निमित्तसे ही संसारमें प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है। उन्हीके निमित्तसे प्रत्येक वस्तुका मस्तित्व कायम है। आकाशके एक प्रदेशमें स्थित पुद्गलका एक परमाणु मन्दगतिसे जितनी देरमे उस प्रदेशसे लगे हुए दूसरे प्रदेशपर पहुंचता है उसे समय कहते है। यह समय कालद्रव्यकी पर्याय है। १ Cosmology Old and New, P. 571
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy