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________________ जनधर्म । 'यत भगवान जिनेन्द्रने मुक्त जीवोका स्थान अपर लोकके अग्रभागमे बतलाया है, अत आकाश गति और स्थितिका निमित्त नहीं है।' तथा'जदि हवदि गमणहंदू आगाास ठाणकारण तेसि। पसदि अलोगहाणी लोगस्स अतपरिवुड्ढी ॥६॥-पचास्तिः । 'यदि आकाश जीव और पुद्गलोक गमन और स्थितिम भी कारण होता है तो ऐसा माननेसे लोककी अन्तिम मर्यादा वढती है और अलोकाकाशकी हानि प्राप्त होती है, क्योकि फिर तो जीव और पुद्गल गति करते हुए आगे बढ़ते जायगे। और ज्यो-ज्यो वे आगे बढते जायगे त्यों-त्यो लोक बढता जायेगा और अलोक घटता जायेगा।' __इसपर भी यह कहा जा सकता है कि लोककी वृद्धि और अलोककी हानि यदि होती है तो होओ, तो उसपर पुन. आचार्य कहते है'तम्हा धम्माधम्मा गमणदिदिकारणाणि णाकासं। इदि' जिणवरेहि भणिद लोगसहाव सुणताण |Mer' –पचास्ति । 'जिनवर भगवानने श्रोताजनोको लोकका स्वभाव ऐसा ही बतलाया है। अत. धर्म और अधर्मद्रव्य ही गति और स्थितिके कारण ई, आकाश नहीं।' ___ आशय यह है कि एक ही आकाशके दो विभाग कायम रखनेमें प्रधान कारण धर्म और अधर्मद्रव्य है । इन दोनो द्रव्योंकी वजहसे ही जीव और पुद्गल लोकाकाशकी मर्यादासे बाहर नहीं जा सकते । जनेतर दार्शनिकोने आकाश द्रव्यको मानकर भी न तो लोकका कोई बास आकार माना और न आत्माको सक्रिय और शरीर परिमाणवाला ही माना। इसलिये उसका नियमन करने के लिये उन्हें धर्म और अधर्म नामके द्रव्य माननेकी आवश्यकता भी प्रतीत नही हुई। किन्तु जैनधर्ममें वैसी व्यवस्था होनेसे आकाशसे जुदे, किन्तु उसके समकक्ष दो द्रव्य और माने गये । इस तरह धर्म और अधर्मद्रव्यके निमित्तसे एक ही भाकाश अखण्ड होकर भी दो रूप हो गया है। जितने आकाशमें सब
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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