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________________ जनधम समयोंके समूहको ही आवली, उवास. प्राण, तोफ, घटिका, दिन रात आदि कहा जाता है। यह सब व्यव्हारकाल है। यह बवहारकाल सोर मण्डलकी गति और घड़ी वगैरहके द्वारा जाना जाता है तया इसके द्वारा ही निश्चयकाल अर्थात् कालद्रव्य के अस्तित्वका अनुमान किया जाता है; क्योकि जैसे किसी बच्चेमें गेरका व्यवहार करनेसे कि यह वचा शेर है' मेरनामके पके होनेका निश्चय निया जाता है, वैसे ही सूर्य आदिकी गतिर्ने जो कालका व्यवहार किया जाता है वह औपचारिक है, अतः काल नामका कोई स्वतंत्र द्रव्य होना बारश्यक है जिसका उपचार लोकिक व्यवहारमे किया जाता है। कालद्रव्यको अन्य दार्शनिकोने भी माना है, किन्तु उन्होने व्यवहारकालको ही कालद्रव्य मान लिया है । कालद्रव्य नामकी अगुल्य वस्तुको केवल जनोने ही स्वीकार किया है। यह कालव्य भी 'आकाशकी तरह ही अमूर्तिक है। केवल इतना अन्तर है कि आकाश एक अखण्ड है, किन्तु कालद्रव्य अनेक है, जैसा कि लिखा है लोयापासपदेचे एक्करके जे दिया हु एक्लेका। रपणाण रातिमिव ते कालाणु बसलदवाणि ।। सवार्य० पृ० १६१ 'लोकाकाशके एक एक प्रदेशपर रत्लोकी राशिकी तरह जो एक एक करके स्थित है, वे कालाणु है और वे असल्यात द्रव्य है। अर्थात् प्रत्येक कालाणु एक एक द्रव्य है जैसे कि पुद्गलका प्रत्येक परमाणु एक एक द्रव्य है।' प्रवचनसार आदि ग्रन्थोंमें इन कालाणुओंके सम्बन्धमें अनेक युक्तियोके द्वारा अच्छा प्रकाग डाला गया है जो मनन करने योग्य है। इस प्रकार जनदर्शन द्रव्य माने गये है। कालको छोडकर शेष द्रव्योको पञ्चास्तिकाय कहते है। 'मस्तिकाय' में दो पद मिल हुए हैं एक 'अस्ति और दूसरा 'काय' । 'अस्ति मान्दा उप है होताह जो कि अस्तित्व सूचक है और कायशब्दका जपं होगाई 'शरीर । अर्थात जसे शरीर वहदेगी होता है वैसे ही मन
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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