SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व यदि में चेतना के भानुमानिक एवं स्वसंवेदनात्मक अन्वेषण करें तो इस गुत्थी को अधिक सरलतासे सुलझा सकते हैं। चेतनाका पूर्वरूप क्या है? __निर्जीव पदार्थ से सजीव पदार्थ की उत्पत्ति नहीं हो सकती-इस तथ्य को स्वीकार करने वाले दार्शनिक चेतन तत्त्व को अनादि-अनन्त मानते हैं। दूसरी श्रेणी उन दार्शनिकों की है जो-निर्जीव पदार्थ से सजीव पदार्थ की उत्पत्ति-स्वीकार करते हैं। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक 'फ्रायड' की धारणा भी यही है कि जीवन का प्रारम्भ निजींव पदार्थ से हुआ। वैज्ञानिक जगत् में भी इस विचार की दो धाराएँ है-वैज्ञानिक "लुई पास्तुर" और टिंजल आदि निजींव से सजीव पदार्थ की उत्पत्ति स्वीकार नहीं करते । रूसी नारी वैज्ञानिक लेपेमिनस्काया, अणुवैज्ञानिक डा. डेराल्ड यूरे और उनके शिष्य स्टैनले मिलर आदि निष्प्राण सत्ता से सप्राण सत्ता की उत्पत्ति में विश्वास करते हैं। चैतन्य को अचेतन की भांति अनुत्पन्न सत्ता या नैसर्गिक सत्ता स्वीकार करने वालों को 'चेतना का पूर्वरूप क्या है?' यह प्रश्न उलझन में नहीं डालता। दूसरी कोटि के लोग, जो अहेतुक या आकस्मिक चैतन्योत्पादवादी हैं, उन्हें यह प्रश्न झकझोर देता है। श्रादि जीव किन अवस्थाओं में, कब और कैसे उत्पन्न हुश्रा ? यह रहस्य आज भी उनके लिए कल्पना-मात्र है। लुई पास्तुर और हिंडाल ने वैज्ञानिक परीक्षण के द्वारा यह प्रमाणित किया कि निजोंव से सजीव पदार्थ उत्पन्न नहीं हो सकते। यह परीक्षण यूं है......। ...एक कांच के गोले में उन्होंने कुछ विशुद्ध पदार्थ रख दिया और उसके बाद धीरे-धीरे उसके भीतर से समस्त हवा निकाल दी। वह गोला और उसके भीतर रखा हुआ पदार्य ऐसा था कि उसके भीतर कोई भी सजीव प्राणी या उसका अण्डा या वैसी ही कोई चीज रह न जाए, यह पहले ही अत्यन्त सावधानी से देख लिया गया। इस अवस्था में रखे जाने पर देखा गया कि चाहे जितने दिन भी रखा जाए, उसके भीतर इस प्रकार की अवस्था में किसी प्रकार की जीव-सत्ता प्रकट नहीं होती, उसी पदार्थ को बाहर निकालकर रख
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy