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________________ [१५] f जिसका उपयोग समाप्त हो भारतीय संस्कृति में शव को जला देने की प्रथा है। उसकी धारणा है कि जो शरीर आत्मा का अधिष्ठान नहीं रहा, या उसे सुरक्षित नहीं रखना चाहिये। ऐसा शरीर जाता है। भूत-प्रेतों का अड्डा बन वैयक्तिक शब जला देने की प्रथा होने पर भी सांस्कृतिक क्षेत्र में वह परम्परा नहीं आई। वहाँ अब भी उन बातों को घसीटा जा रहा है जिनकी उपयोगिता समाप्त हो चुकी है। प्राचीनता के नाम पर व्यर्थ की बातों को मानव बुद्धि पर लादा जा रहा है। संस्कृति के शव हमारे जीवन को घेरे हुये हैं और नई प्राण शक्ति का विरोध कर रहे हैं। इतना ही नहीं, उन शवों को आधार बना कर अनेक मिथ्या धारणायें पनप रही हैं जो भूत-प्रेतों के समान साधारण जनता को डराती हैं। ऐसा लगता है जैसे उन शवों की पूजा न करने पर वे खा जायेंगी। नई बात को सोचने तक में 'भय' होता है । धर्म एक प्रदीप के समान है किन्तु प्रदीप का अर्थ है वह अग्निशिखा जो चारों ओर प्रकाश फैलाती है। तेल और बत्ती प्रतिक्षण अपनी आहुति देकर उस ज्योति को प्रज्वलित रखते हैं। मिट्टी का पात्र जिसमें तेल और बत्ती रखे जाते हैं केवल बाह्य आधार होता है । वह मिट्टी या सोना, चांदी, पीतल आदि किसी धातु का हो सकता है किन्तु यदि मिट्टी का दिया जलाने वाला इस बात का आग्रह करे कि सोने के पात्र में प्रज्वलित शिखा प्रकाश नहीं दे सकती अथवा सोने के पात्र वाला अग्निशिखा की उपेक्षा करके इस बात का गर्व करे कि उसका पात्र सोने का है तो दोनों को जड़ पूजक कहा जायगा । दोनों प्रकाश को छोड़ कर अन्धेरे में भटकते हैं। एक को गुदड़ी का अहंकार है और दूसरे को मुकुट का । दोनों सत्य से दूर चले जाते हैं। प्रकाश के स्थान पर अहंकार के उपासक बन जाते हैं। 1 आत्म-साधना में बाह्य आचार का स्थान पात्र के समान है। कोई गेरुए कपड़े पहन कर उस ज्योति को प्रज्वलित करने का दावा करता है, कोई सफेद कपड़े पहनकर, कोई जटा बढ़ाकर, कोई उस्तरे से मुँडाकर ओर कोई बाल नौचकर | किन्तु यदि आत्म-ज्योति प्रज्वलित नहीं होती तो सब व्यर्थ है । उनकी उत्कृष्टता तथा हीनता का मापदंड 'ज्योति' है, अपने आप में उनका कोई मूल्य नहीं है । 'ज्योति' न होने पर भी उन्हें महत्व देना 'शवपूजा' है। । तेल और बत्ती के स्थान पर हम उन साधना पद्धतियों को रख सकते हैं जो आत्मा का मालिन्य दूर करती हैं। कोई घी का दिया जलाता है, कोई तेल का ओर कोई मोम का उपयोग करता है। प्रकाश प्राप्त होने पर किसी 1
SR No.010092
Book TitleJain Darshan aur Sanskruti Parishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherMohanlal Banthiya
Publication Year1964
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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