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________________ [ १६ ] को भी हेय नहीं कहा जा सकता। व्यक्ति को अपनी सुविधानुसार समी का उपयोग करने की छूट है। इसी प्रकार आत्मा की ज्योति को प्रज्वलित करने के लिये कोई स्वाध्याय का माग अपनाता है, कोई ध्यान का, कोई हुखियों की सेवा का और कोई तपस्या का । सर्वत्र यह आवश्यक है कि व्यकि कषाय, मोह कोबची को जलाना चला जाय । बत्ती जितनी जलेगी, प्रकाश उतना ही अधिक होगा। इसके विपरीत उसे जितना सुरक्षित रखा जायगा, प्रकाश की मात्रा उतनी ही शून्य होगी। प्रकाश प्राप्त होने पर भी दूसरे के तेल या बत्ती की निन्दा करना एकांतवाद है जो मिथ्यात्व का रूपांतर है। किन्तु प्रायः देखा गया है कि हम अपने अहंकार को जलाने के स्थान पर सिद्धान्त की आड़ लेकर उसका पोषण करने लगते हैं। धर्माचार्यों में अपनेअपने सिद्धान्त को उत्कृष्ट सिद्ध करने की होड़ चल पड़ती है। उन्हें जीवन में उतारने की इतनी चिन्ता नहीं रहती जितना उसका ढोल पीटकर दूसरे को चुप करने की। इस प्रकार सिद्धान्त आत्मा के आवरण बनकर गर्व का पोषण करने लगते हैं। जीवन के प्रेरक तत्व नहीं रहते। वास्तव में देखा जाय तो सिद्धान्त कितना ही ऊंचा हो जब तक जीवन में नहीं उतरता उसका कोई मूल्य नहीं है। ऐसा सिद्धान्त निष्प्राण शव के समान होता है और उसका नाम लेकर हम आत्म-विकाम के स्थान पर अहंकार की पुष्टि करने लगते है। उदाहरण के रूप में अनेकांत को प्रस्तुत किया जा सकता है। यह एक सिद्धान्त है जो झगड़ों का अन्त कर सकता है। उसका तकाजा है कि हम अपनी मान्यता या दृष्टिकोण को दूसरे पर लादने के स्थान पर उसके दृष्टिकोण को समझने का उपाय करें। उसकी भावनाओं और अनुभूतियों को अपनी भावनाएं एवं अनुभूतियां बनाकर देखें। इसीका दूसरा नाम समता है जो कि जैन साधना का एक मात्र लक्ष्य है। किन्तु यदि कोई समता की घोषणा पर भी अपने को दूसरे से उत्कृष्ट समझता है, प्रत्येक बात पर दूसरे को शिथिल या पतित कहता है तो वह समता को छोड़कर विषमता के मार्ग पर चल पड़ता है। मौखिक घोषणा मात्र से समता का उपासक नहीं कहा जा सकता। समता की उपासना का ही दूसरा नाम 'सामायिक' है। यह साधु का जीवन प्रत होता है। उत्तराध्ययन सूत्र में पाया है कि भ्रमण का अर्थ है समता का उपासक) इसे छोड़ देने पर किसी को यह अधिकार नहीं रहता है कि अपने आपको श्रमण कह सके। यह समता की शवपूजा है, चेतन पूजा नहीं। अनेकांत दूसरे के दृष्टिकोण को समझने पर बल देता है। लोकतन्त्र के इस युग में इस बात को बहुत महत्व दिया जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने
SR No.010092
Book TitleJain Darshan aur Sanskruti Parishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherMohanlal Banthiya
Publication Year1964
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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