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________________ जैन-मजिसमन्यकी भूमि . बीतरागी भगवान्का प्रेरणाजन्य कर्तृत्व जैन-भक्त भले ही कुछ न चाहता हो, किन्तु उसे लौकिक और पारलौकिक सभी वैभव, भगवान् जिनकी कृपासे उपलब्ध होते हैं। जैन सिद्धान्तके अनुसार राग-द्वेषसे रहित शुद्धात्मा अर्थात् वीतरागी भगवान् न कर्ता हैं और न भोक्ता।' फिर जैन-भक्तको उनको कृपा कैसे प्राप्त हो गयी ? ___ जैन-भक्त भी जैन सिद्धान्तके अनुकूल ही भगवान् जिनेन्द्रको कर्ता नहीं मानता, किन्तु उसके निमित्तजन्य कर्तृत्वमें विश्वास करता है । यह वह कर्तृत्व है जिसका आभास कर्ताको भी नहीं होता, और भक्त सब कुछ पा जाता है । आचार्य समन्तभद्रने कहा है कि वीतरागी भगवानको पूजा-वन्दनासे कोई तात्पर्य नहीं है, क्योंकि वे सभी रागोंसे रहित हैं । निन्दासे भी उनका कोई प्रयोजन नहीं है, क्योंकि उनमें से वैर-भाव निकल चुका है। फिर भी उनके पुण्य-गुणोंका स्मरण भक्तके चित्तको पाप-मलोंसे पवित्र करता है। भगवान्को भक्तके इस स्मरणका भान भी नहीं होता, किन्तु उन्होंके गुणोंके स्मरणसे भक्तका चित्त पवित्र बना और पाप-मल गले, अतः वह तो उन्हें कर्ता कहता ही है। यह ही निमित्तजन्य कत्त्व है। इसोका समर्थन करते हुए आचार्य पूज्यपादने एक स्तुतिमें लिखा है । "जिस प्रकार चिन्तामणि रत्न तथा कल्पवृक्ष आदि अचेतन हैं, तो भी पुण्यवान् पुरुषको उनके पुण्योदयके अनुसार फल देते हैं । उसी प्रकार भगवान् अरहंत या सिद्ध, राग-द्वेषरहित होनेपर भी भक्तोंको उनको भक्तिके अनुसार फल देते हैं।" १. जदि पुग्गलकम्ममिणं कुम्वदि तं चेव वेदयदि आदा।। दो किरिया विदिरित्तो पसजदि सो जिणावमदं ॥ ८५॥ आचार्य कुन्दकुन्द, समयसार : श्री पाटनी दि. जैन प्रन्थमाला, मारोठ, १९५३, २१८५, पृष्ट १५१ । २. न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ ! विवाम्त-वैरे। तथाऽपि ते पुण्य-गुण-स्मृतिर्नः पुनाति चित्तं दुरिताब्जनेभ्यः ॥ आचार्य समन्तभद्र , स्वयम्भूस्तोत्र : पं० जुगलकिशोर मुख्तार सम्पादित, हिन्दी अनूदित, वीरसेवामन्दिर, सरसावा, जुलाई १९५१, १२।२, पृष्ठ ४३। यथा निश्चेतनाश्चिन्तामणिकल्पमहीरुहाः । कृतपुण्यानुसारेण तदमीष्टफलप्रदाः ॥ ३ ॥ तथाहदादयश्चास्तरागद्वेषप्रवृत्तयः।। भक्तमत्स्यनुसारेण स्वर्गमोक्षफलप्रदाः॥ ४ ॥ दशभक्त्यादिसंग्रह : श्रीसिद्धसेनगोयलीय सम्पादित, हिन्दी-अनूदित, सलाल, [ साबरकांठा ] गुजरात, वी० नि० सं० २४८१, पृ० ५९ ।
SR No.010090
Book TitleJain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1963
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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